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सोमवार, जनवरी 10, 2011

कहानी वाले बाबा

भाषा की रवानी है ये.
शब्दों की जुबानी है ये,
सुख-दुख की नौका में बैठी,
हम सब की कहानी है ये,
आओ मेरे प्यारे बच्चोइसको तुम सुनो,
थोड़ा-सा गुनूं मैंथोड़ा तुम गुनो...

..तो चार चोर चोरी को चलेचार चोरजी हांचार चोर—चोरी को चलेदबे पांव से,छिपते-छिपातेनजर बचातेहौले-हौले बात बनाते!

बात बनातेजी हांबात बनातेशगुन मनातेजुगत भिड़ातेकोशिश में किदेख न ले कोई,जान न ले कोई—आते-जातेरात अंधेरीनीलगगन मेंलुकछिप-लुकछिप करते तारे
उन तारों की छांव तले
चार चोर चोरी को चले!
चारों में से एक का नाम था—फूल सिंह!
दूसरे का—मूल सिंह!
तीसरे का—मूल सिंह।
और चैथा था—झूल सिंहटोली का सरदार!
चलते-चलते रास्ते में एक मंदिर पड़ाचारों ने मिलकर मनौती मांगीकाम सधने पर पूरा करने का वायदा कियाफिर पुजारी से प्रसाद ले आगे बढ़ गए.
चलते-चलते भूल सिंह बोला—‘अगर भला सोचो तो…’
फूल सिंह ने जोड़ा—‘हर काम भला होता है.’
मूल सिंह ने साथ दिया—‘खुद भला करो तो…’
झूल सिंह ने बात पूरी की—‘जग भला करता है.’
अचानक चारों के चेहरे बुझ गएकि जैसे दमकता हुआ चांद बादलों के पीछे जा छिपेसूरज को ग्रहण लगेदिया बुझे और चारों ओर घुप्प अंधेरा छा जाएकाफी देर बाद मूल सिंह बोला, ‘दोस्तोहमें ये बातें शोभा नहीं देतीं.’
क्योंहम क्या आदमी नहीं हैं?’ फूल सिंह ने तुनकमिजाजी दिखाई.
आदमी तो वही है जिसकी सब इज्जत करें.’ मूल सिंह ने उलाहना दियायह सुनना था कि बाकी तीनों की बोलती बंद हो गईचेहरे हारे हुए जुआरियों की तरह लटक गएनजरें झूल सिंह की ओर उठी हुई थींमामला अटकता हुआ दिखाई पड़े तो उसी से उम्मीद की जाती थीहर विवाद,प्रत्येक मुश्किल में वही राह दिखाता थासरदार जो ठहरा.
मूल सिंह ठीक कहता हैइस काम में सिवाय बदनामी के कुछ नहीं हैहम जान पर खेलकररात-रात भर जागकर घात लगाते हैंकभी मिलता हैकभी दाव खाली चला जाता है.बदले में सिवाय गालीनफरत और बद्दुआ के हमें मिलता ही क्या है.’ झूल सिंह बोला.
हम अपनी कमाई का पांचवा हिस्सा दान में लुटा देते हैंफिर भी दुनिया की नजरों में हम जो करें वह पापऔर लाला जो कम तौलेमहंगा बेचेझूठ बोलेबेईमानी करेब्याज पर रकम देकर औनी-पौनी कमाई करेन किसी गरीब की मदद करेदान में पाई तक न लगाए—वह धर्मात्मा…’ मूल सिंह ने दुख जताया.
वो तो कहावत ही हैजैसा बोओगेवैसा ही काटोगे.’ फूल सिंह ने जोड़ा.
जैसा भी हैअपना धंधा हैहमें इसकी इज्जत करनी चाहिए.’ भूल सिंह ने कहा तो झूल सिंह ने उसका जोरदार खंडन किया—
धंधा जरूर हैमजबूरी नहीं हैअगर हमें मान-सम्मान चाहिए तो यह काम छोड़ना ही पड़ेगा.’
हमेशा की तरह तीनों ने अपने सरदार की यह बात भी मान लीपरंतु अब एक और समस्या खड़ी हो गईचारों के चारों चोरचोरी अगर छोड़ दें तो क्या करेंकोई और काम तो उनको आता नहीं थाउलझन भारी थीलेकिन जहां चाह—वहां राह.
आखिर लंबे सोच-विचार के बाद रास्ता भी निकलामूल सिंह का दूर का रिश्तेदार एक व्यापारी थाकम समय में ही उसने अच्छी तरक्की की थीसो उसी ने व्यापार करने की सलाह दी.व्यापार माने व्यापारचारों ने व्यापार का नाम-भर सुना थाइससे ज्यादा वे कुछ जानते न थे.बदनाम बहुत ज्यादा थेइसलिए उन्हें कोई नौकरी पर रखने को तैयार न थासो काफी देर तक सोच-विचार करने के बाद चारों ने व्यापार ही करने का फैसला किया.
बिना धन के व्यापार भी कैसे सधेगा?’ मूल सिंह ने समस्या बयान कीइससे चारों फिर चकरा गएबात सही थीबिना रुपए के तो मंदिर का भगवान नहीं पसीजताफिर व्यापार में तो पहले रुपये का गारा करना पड़ता हैउसके बाद ही मुनाफे की इमारत खड़ी होती हैजबकि उनके पास पूंजी के नाम पर कुछ था नहींचारों थे ठन-ठन गोपालचोरी से जो जुटताचार हिस्सों में बंटने के बाद वह पांच-सात दिन से ज्यादा न टिकता.
तब भूल सिंह ने ही सलाह दी—‘व्यापार के लिए धन जुटाने का एक ही रास्ता है.’
तो देर किस बात कीजल्दी से बताओ.’ फूल सिंह ने कहाबाकी दो भी भूल सिंह की ओर देखने लगेकि जैसे किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए हों.
हम एक बड़ी-सी चोरी करेंजो भी धन हाथ लगेउसे चार हिस्सों में बराबर-बराबर बांट लेंफिर अपने-अपने हिस्से से चारों अलग-अलग व्यापार करें.’
वाह भाई भूल सिंहआज तुमने अपने नाम को सही कर दिखाया.’ फूल सिंह बोला— ‘हमने अभी-अभी चोरी न करने का निर्णय लिया हैऔर तुम हमें अभी से झुठलाने पर तुले हो.’
फिर तुम्हीं को रास्ता सुझाओफूल सिंह…’ भूल सिंह ने कहाफूल सिंह चुपहोंठ सिल-से गए.
हमें कोई कर्ज तो देगा नहींमेहनत-मजदूरी करना चाहें तो भी काम नहीं मिलेगाऐसी हालत में यही रास्ता हैअब यह तुम पर है कि हम जैसे चल रहा हैउसे या तो इसी तरह उम्र-भर चलने देंया फिर मन मारकर एक बार चोरी करके कोई इज्जतदार धंधा शुरू करें.नाम और नामा कमाएं और फिर इस धंधे से हमेशा के लिए राम-राम कर लें.’ भूल सिंह ने अपना जोरदार तर्क सलीके से पेश कियाचारों के बीच फिर चुप्पी छा गईअंत में झूल सिंह ने ही सरदार होने का धर्म निभायाफैसला सुनाया—
मुझे भी लगता है कि इस समय भूल सिंह की सलाह पर ही चलना ठीक रहेगाइसके अलावा कोई ओर चारा नहीं दिखतालोग न तो हमें काम पर रखेंगेन उधार ही देंगेहमारे सामने सिर्फ दो रास्ते हैंया तो हमेशा इस पापकर्म में फंसे रहें या फिर मन मारकर एक बार पाप और करें.फिर हमेशा-हमेशा के लिए इससे छुटकारा कर लेंमेरे विचार से दूसरा रास्ता ही ठीक हैबाकी आप सबकी मर्जीयह रास्ता भी न भाए तो भी आगे देखा जाएगालेकिन कहते हैं न कि शुभस्य शीघ्रमअगर तुम तीनों हां करो तो हम आज से ही तैयारी शुरू कर देते हैं.’ कहते-कहते झूल सिंह कुछ क्षर्णों के लिए रुका—
यह हमारी आखिरी चोरी होगी और वह भी उधारइस चोरी से जो भी हाथ लगेगा वह उसके मालिक का हमारे ऊपर एहसान रहेगाहम चारों डटकर मेहनत करेंगेऔर साल-भर के भीतर मय सूद सारा उधार लौटा देंगेबोलों मंजूर है?’ झूल सिंह ने जोर देकर पूछाइसपर उन तीनों ने सहमति दर्शा दी.
इसके बाद चारों ने खूब खोजबीन करने के बाद एक सेठ की हवेली पर धावा बोल दियाअच्छी नीयत तो अच्छे सगुनअच्छे सगुन तो सभी कुछ अच्छादांव अच्छा पड़ाचारों के मोटी रकम हाथ लगीजेबें नोटों से भर गईंचोरी से निपटने के बाद उन्होंने वहीं गृहस्वामी के नाम पर एक पत्र लिखाउसमें लिखा था कि— ‘जनाबआज तक हमने अनेक चोरियां की हैंकभी उनका मलाल नहीं हुआपरंतु आज हम सच्चे दिल से शर्मिंदा हैंआपके अस्सी हजार रुपए जो आज हम चोरी करके अपने साथ ले जा रहे हैंवे हमारे ऊपर कर्ज रहेंगेसाल-भर के भीतर उसे मय सूद वापस कर देंगेनहीं कर पाए तो खुद हाजिर हो जाएंगेउस समय आप जो भी दंड देंगेउसे हम चारों सिर-माथे लेंगे.’
बाहर आकर चारों ने बीस-बीस हजार रुपये आपस में बांट लिएविदा का समय आया तो सरदार ने अपने साथियों को फिर समझाया—‘भाइयोहमने इंसान बनने की कसम खाई हैव्यापार करके सिर्फ रुपए कमाना हमारा मकसद नहीं हैइसलिए आगे से ऐसा कोई काम मत करनाजिससे हमारी आगे भी बदनामी होलोग कहें कि चोर हमेशा ही चोर रहता हैकभी नेक इंसान नहीं बन सकताऔर लालच में फंसकर ऐसा काम कभी मत कर बैठना कि लोगों का इंसानियत से भरोसा ही उठ जाएआज से ठीक छह महीने के बाद हम यहींइसी स्थान पर दुबारा मिलेंगेएक-दूसरे का हाल जानने के लिएतब तक के लिए विदा…’
इसके बाद सगे भाइयों की तरह चारों गले मिलेभरे गले से आपस में राम-राम कहाफिर अपनी नेकचलनी का वायदा कर चारों अपने-अपने रास्ते पर बढ़ गए.
 
समय गुजरता गयादिनसप्ताहमहीने..! ऐसे ही छठा महीना भी पूरा हो गयानियत दिननियत समय और नियत स्थान पर वे मिलेएक-दूसरे को देखते ही चारों की बांछे खिल गईंखुशी संभाले नहीं संभली तो आंखों से आंसू बनकर छलकने लगीलेकिन जैसे ही व्यापार की बात आईचारों की गर्दनें एक साथ लटक गईंचेहरों पर मुर्दनी छा गईसहसा फूल सिंह आगे बढ़ा और अपनी नाकामी को शब्द देते हुए बोला—
भाइयोमुझे दुनिया के लंद-फंद तो आते नहींफिर व्यापार भला कैसे सधताबचपन में पिता को पशु खरीदते-बेचते देखता थासो यही धंधा अपनाने का फैसला कियायह सोचकर कि आसान काम हैकिसी तरह सध ही जाएगाशुरू में में तो मुनाफा भी खूब हुआजैसे सावन-भादों में अंबर से पानी बरसता हैवैसे ही चारों ओर से रुपया बरसने लगामैं खुशपहली बार सच्ची मेहनत से मिली सफलता का आनंद भी भोगाकुछ ही महीनों में मैं गर्दन तानकर चलने लगा.एक बार पशुओं की पैंठ में गयारुपयों से भरा झोला लेकरभगवान ही जाने नोटों की गरमी थी या मेरी अक्ल पर पत्थर पड़े थेमैंने पैंठ से दर्जन-भर बैल खरीद लिएयह सोचकर कि उन्हें सोनपुर के मेले में ले जाकर बेचूंगा तो खूब मुनाफा होगासेठ का सारा कर्ज मैं अकेले ही चुका दूंगालेकिन दुर्देव की मारमैं सोनपुर मेले की ओर बढ़ ही रहा था कि बैलों में महामारी फैल गईमेरे सारे बैल उसकी चपेट में आ गएकमाना तो दूरजितना हाथ में लेकर गया थाउसे भी गंवा बैठा.’
फूल सिंह की बात ने बाकी तीनों को दुःख से सराबोर कर दियाउसके बाद मूल सिंह ने अपना किस्सा बयान किया—
तुम्हें मालूम है कि मुझे शुरू से ही खाना पकाने का शौक रहा हैयही सोचकर मैंने ढाबा खोला थामेरी दुकान के सामने ही बस अड्डा थायात्रियों के आने-जाने से भीड़ रहती थीथोडे़ ही दिनों में ढाबा ठीक-ठाक चल निकलामैं यह सोचकर खुशियां मनाता था कि कुछ ही दिनों में सेठ का सारा कर्ज मैं अकेला चुका दूंगाआप तीनों की मदद की जरूरत ही नहीं पड़ेगीलेकिन वक्त की मारकि दुर्भाग्य का वारएक दिन एक ऐसा ग्राहक आया जो मेरी पिछली जिंदगी के बारे में जानता थामेरे समझानेबार-बार फरियाद करने के बावजूद वह मेरी पहचान को छिपाए रखने को तैयार न हुआबद से बदनाम बुरालोगों को जैसे ही मेरी पिछली जिंदगी की जानकारी मिली,वे मुझसे दूर होते चले गएपहले ग्राहक घटेफिर पुलिस ढाबे के चक्कर लगाने लगीकुछ ही दिनों में धंधा बिल्कुल पिट गयाएक दिन वह ढाबा भी मेरे हाथ से जाता रहा.’
भूल सिंह की कहानी भी कम दर्दनाक न थीकाम-धंधे की तलाश करते हुए उसने परचून की दुकान खोली थीअपने सरदार का कहा उसको याद थाइसलिए न महंगा बेचतान कम तौलता थान झूठ बोलतान ही मिलावट करता थाअनुभव की कमीबेईमानी के बाजार में ऐसे कब तक टिक पातालगी-लगाई पूंजी कब हवा हो गईवह जान ही न पाया.
झूल सिंहयानी सरदार की भी कहानी मिलती-जुलती थीवह सरदार जरूर थालेकिन तीन के तेरह बनाने की कला से एकदम दूर थाउसके पिता रंगरेज थेछुटपन में वह अपने पिता के काम में मदद किया करता थाइसलिए धंधे के रूप में वही उसको ठीक जान पड़ाकस्बे से बाहर एक तालाब के किनारे वह कपड़ों को धोने और रंगने लगादो-तीन महीने बाद धंधा जमने लगा.इसपर इलाके के दूसरे रंगरेज उससे नाराज हो गएझूल सिंह को नीचा दिखाने के लिए वे कम मजदूरी पर भी काम करने लगेदूसरी ओर मशीनों से रंगाछपा कपड़ा भी गांव आने लगाजो हाथ से रंगे कपड़े के मुकाबले सस्ता और चमकीला थाइससे ग्राहक घटने लगेकमाई सिमटकर रह गईवह किसी तरह उस धंधे को खींचे जा रहा थाबस यही उसमें और बाकी तीनों में अंतर था.
इस तरह चारों की हालत एक जैसी थीव्यापार के प्रति उनकी रुचि समाप्त हो चुकी थीन उसका उत्साह थान व्यापार को नए सिरे से जमाने लायक पूंजी उनके पास थीआगे क्या करेंबस यही सवाल उन्हें खाए जा रहा था.
मैंने पहले ही कहा थाभगवान जन्म होने से पहले ही इंसान के लिए धंधा भी तय कर देता है.सिवाय चोरी के हम कहीं और कामयाब हो ही नहीं सकतेपरंतु तब मेरी बात किसी ने भी नहीं सुनी थीथोड़ा खतरा और बदनामी जरूर थीमगर हम उसी काम में लगे रहते तो आज हमारे पास हजारों रुपये जमा होतेफिलहाल हम चारों कर्जजार हैं.’ भूल सिंह ने कहा.
कर्ज तो तभी तक हैजब तक हम उसको मानेवरना सेठ को क्या मालूम कि हमीं उसके कर्जदार हैं.’ मूल सिंह ने भूल सिंह की भूल में उसका साथ दिया.
मेरा भी यही मन है कि हम फिर अपने पुराने धंधे पर लौट जाएंएक घर मेरी निगाह में हैजिसमें नकदी और जेवरात की अफरात हैएक बार हाथ मार लेंछह महीने तक कुछ करने की जरूरत नहीं होगी.’ व्यापार से निराश हो चुके फूल सिंह ने भी उन दोनों का साथ दियाझूल सिंह बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था.
इतनी जल्दी हिम्मत क्यों हारते होभरोसा रखोआज नहीं तो कलकामयाबी हमारे साथ होगी.’सरदार होने के नाते झूलसिंह ने समझाने का प्रयास किया.
कामयाबी तो तभी मिलेंगी जब हमारे गांठ-पल्ले कुछ होगा?’ भूल सिंह ने प्रतिवाद कियाछह महीने पहले अगर वह बात काटता तो झूल सिंह उसका सिर कलम कर देतालेकिन उसने नेक इंसान बनने की प्रतीज्ञा की थीइसलिए उस समय सिर्फ मुस्कुरा-भर दिया.
चारों देर तक बातचीत करते रहेअंत में उन्होंने फैसला किया कि जहां तक हो सकेचोरी का रास्ता दुबारा नहीं पकड़ेंगेसब मिलकर झूल सिंह के धंधे को संभालेंगेजरूरत पड़ी तो मेहनत-मजदूरी का सहारा लेंगेपर चाहे जैसे भी होसेठ का कर्ज समय पर लौटा देंगेअगर नहीं लौटा पाए तो ठीक छह महीने के बाद उसके सामने हाजिर हो जाएंगेफिर मारे या छोड़े—मर्जी सेठ की.
इस फैसले के बाद चारों कड़ी मेहनत करने लगे!
 
जिस सेठ के घर उन चारों ने चोरी की थीवह काफी धनवान थाऊपर से बुद्धिमान भीउन चारों द्वारा छोड़ी गई चिट्ठी को उसने कई बार पढ़ासोचाउसका कई चोरों से वास्ता पड़ा थापरंतु ये चारों उसे विचित्र जान पड़ेउसने उनकी तलाश में अपने आदमी लगा दिए थेजो उसे चारों की खबर देते रहते थेचिट्ठी में किए गए वायदे के अनुसार चारों को दिन-रात मेहनत करते देख,सेठ को बहुत प्रसन्नता हुईव्यापार में हुए घाटे और कर्ज उतारने के लिए दुबारा जुट जाने की सूचना भी सेठ से छिपी न थीव्यापार में उन चारों को हुए घाटे की सूचना से सेठ भी व्यथित हुआ थाकि जैेसे उसे अपने ही व्यापार में घाटा हुआ होसेठ ने फौरन अपने एक आदमी को मदद के साथ उन चारों के पास भेजा था.
सेठ का नाम लिए बिना उस आदमी ने मदद के लिए हाथ बढ़ायाफूल सिंह ने तो और कर्ज लेने से इंकार ही कर दियामूल सिंह और भूल सिंह ने फैसला सरदार पर डाल दियातब सरदार ने कहा था—‘हमपर एक सेठ का अस्सी हजार रुपये का कर्ज हैजब तक हम उससे उबर नहीं जाते,तब तक कोई और कर्ज लेना हमारे लिए हराम है.’
सेठ ने सुना तो उसे और भी विचित्र लगाउन चारों पर उसका विश्वास और भी दृढ़ हो गयावह एक वर्ष पूरा होने की प्रतीक्षा करने लगा.
चारों कड़ी मेहनत कर रहे थेसमय बीतता रहाबीतता ही रहाकुछ महीने के बाद एक शाम को चारों इकट्ठे हुए तो सभी उदास थेथके-थके और परेशान भीबड़ी देर तक उनके बीच चुप्पी छाई रहीसभी के मन में हलचल थीविचारों का तांता-सा लगा थामगर होंठ जैसे सिल दिए गए होंअंततः झूल सिंह ने ही सरदार बात की शुरुआत की—
आज साल का आखिरी दिन हैवायदे के अनुसार हमें कल सेठ के सामने उपस्थित होना है.हमारे पास जितना कुछ हैअगर हम सबको बेच भी दें तो सबकुछ मिलाकर आठ हजार से ज्यादा नहीं हो पाएंगेइससे सेठ का कर्ज तो उतर नहीं पाएगाइसलिए मैंने एक फैसला किया है…’
कैसा फेसला?’ मूल सिंह और फूल सिंह ने एक साथ पूछा.
चोरी करना हमारा धर्म हैवही हमें सध सकता हैइसलिए मैं जानता था कि हमें एक दिन वहीं लौटना होगा.’ भूल सिंह बोला.
पहले मेरी बात तो सुनो…’ सरदार ने उसे टोका और कहना जारी रखा, ‘मैं तुम तीनों से बड़ा हूं और तुम्हारा सरदार भीइसलिए सेठ के कर्ज को चुकाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी मेरी ही है.’
आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?’ फूल सिंह बोला.
कल हमारे पास जितने भी रुपये जमा होंगेमैं उन सबको लेकर सेठ के सामने हाजिर हो जाऊंगाउससे कहूंगा कि अपना कर्ज उतरने तक मुझे अपने यहां नौकर रख ले.’
चोरों के सरदार को सेठ नौकरी देगा?’ मूल सिंह ने स्वाभाविक-सा सवाल कियापरंतु झूल सिंह ने उसका उत्तर मानो पहले ही सोच रखा था—
वह ज्यादा से ज्यादा मुझे जेल भिजवा देगामुझे यह भी मंजूर होगामैं वायदा करता हूं कि थाने में पुलिस मुझे चाहे जितना मारे-पीटेमैं अपना मुंह हरगिज नहीं खोलूंगातुम तीनों आज से आजाद होजाओ और ईमानदारी के साथ अपना पेट भरो…’ कहते-कहते सरदार गमगीन हो गयाकि जैसे उसपर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा होकि जैसे बिछोह की घड़ी एकदम सिर पर सवार होसरदार की देखा-देखी बाकी चारों के चेहरे भी उतर गए.
अचानक भूल सिंह उखड़ पड़ा—‘वाह सरदार वाहतुमने तो हमें पूरा स्वार्थी ही समझ लियामैं जानता हूं कि चोरी का धंधा छोड़ने का सबसे अधिक विरोध मैंने ही किया थामगर एक साल के अनुभव के दम पर मैं एक बात बहुत दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी पुरानी जिंदगी से यह जिंदगी लाख दर्जा बेहतर है.’
एकदम सही कहाचोरी के लाख भी हों तो गर्दन झुकाकर चलना पड़ता थाअब खाली जेब भी सीना तान कर रहते हैं.’ मूल सिंह ने जोड़ा.
जंगल हो या जेलजहां भी रहना पड़ेहम साथ-साथ रहेंगे.’ फूल सिंह बोलाजिसे सुनकर सरदार विह्वल हो गया.
 
 
अगले दिन सेठ जैसे ही अपनी गद्दी पर पहुंचाउसने चार आदमियों को अपने सामने झुका पाया.सेठ उनके बारे में जानता तो सबकुछ थाफिर भी उसने पूछा—‘आप लोग कौन हैंमेरे पास आने का मकसद?’
सेठ की बात सुनकर झूल सिंह आगे बढ़ासेठ को दुबारा प्रणाम करने के बाद उसने बताया, ‘आप हमें नहीं जानते सेठजीसाल-भर पहले हम चोर थेहमने ही आपकी हवेली से अस्सी हजार रुपयों की चोरी की थी.’
अरे हांयाद आयालेकिन तुमने तो वायदा किया था कि साल-भर के भीतर ही मेरे सारे रुपये लौटा दोगेदेखो जीमैं व्यापारी हूंचोरी चले जाते तो सब्र कर लेतापर तुम देने आए हो तो अपनी रकम बिना ब्याज के लेकर मुझे तसल्ली न होगीहांतुम ईमानदारी के साथ खुद चलकर आए होसो चार रुपया सैकड़ा की जगह यदि दो का भाव भी दोगे तो मैं चुपचाप रख लूंगा…’कहकर सेठ ने उन चारों पर नजर डाली जो अभी तक गर्दन झुकाए खड़े थेअपराधबोध से ग्रस्तग्लानिभाव से भरे हुए.
चोरी करके तुमने बहुत बड़ा अपराध किया थाजानते हो.’ कड़वे स्वर में सेठ ने आगे कहा.
हम अपने किए की सजा भुगतने को तैयार हैं.’ झूल सिंह ने सबकी ओर से कहा.
बहुत चालाक बनते होपुलिस मुझसे पूछेगी नहीं कि चोरी की बात साल-भर छिपाकर क्यों रखी.’सेठ ने नाराजगी का प्रदर्शन किया, ‘मेरे रुपये लाए हो?’
नहींहमने रुपया कमाने के लाख जतन किएमेहनत-मजदूरी भी कीलेकिन उतने रुपये जमा नहीं हो सके.’
यदि मैं तुम्हें सजा दिलाने पर जोर दूं तो आगे कोई चोर भला आदमी बनने से नहीं सोचेगा.ऊपर से मेरा अस्सी हजार रुपया तो डूब ही जाएगाइसलिए जब तक मेरा कर्ज चुक नहीं जाता,तुम चारों में यहां नौकर बनकर रहोगे.’
हम आपके शुक्रगुजार हैं…’ चारों एक साथ बोले.
लेकिन मेरी एक शर्त अभी बाकी है.’ सेठ ने खुलासा करते हुए कहा, ‘जब तक तुम मेरा कर्ज चुका नहीं देतेतब तक आंधीतूफान हो या मूसलाधार बारिशतेज धूप हो या कड़कड़ाती ठंड,तुम चारों को वहां खुले मैदान में सोना पड़ेगा.’ सेठ ने सामने खाली पड़े मैदान की ओर इशारा किया.
चारों प्रायश्चित करना चाहते थेइसलिए उन्होंने चुपचाप सेठ की शर्त मान लीजिस मैदान की ओर सेठ ने इशारा किया थाकुछ दिन की मेहनत के बाद चारों ने वहां एक चबूतरा बना लिया.सेठजी की अनुमति पाकर फूल सिंह एक दिन जंगल में गया और वहां से कई पौधे उखाड़ लाया.वे पौधे उसने उस चबूतरे पर रोप दिएदिन में वे सेठ के यहां काम करतेरात को विश्राम के लिए चबूतरे पर चले जातेताजी हवापानी और धूप पाकर पौधे तेजी से पनपने लगेमैदान पर हरियाली छाने लगी.
चारों पूरी ईमानदारी से रहतेजमकर मेहनत करतेदूसरों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते.धीर-धीरे गांववालों का विश्वास उनपर जमने लगालोग उनके पास जुटने लगेकौतूहलवश लोग उनकी पिछली जिंदगी के बारे में भी सवाल करतेशुरू में चारों ऐसे प्रश्नों का जवाब देने में सकुचाते थेबाद में वे अपने अनुभव बताने लगेबातों-बातों में उन्होंने लोगों को अपने पाप गिनाए और प्रायश्चित भी कियाउनके जीवन की घटनाएं सुनकर लोगों को रोमांच हो आतावे उन्हें बार-बार सुनाने का अनुरोध करतेघटनाएं बयान करते समय चारों उसमें डूब जातेउस समय उनका अंदाज रोचक हो जातामामूली घटना भी मजेदार कहानी में ढल जाती थीलोगों को उनकी बातों में मजा आने लगाधीरे-धीरे मामूली घटना को मजेदार किस्से में ढाल देने की कला में वे पारंगत होते चले गए.
चबूतरा गांव के बीचों बीच बना थादिन-भर काम से थके-मांदे किसान और मजदूर मनोरंजन की चाहत में वहां चले आतेखुश होकर आटादालचावलगुड़चना-चबैना जैसा भी जिससे बन पड़तावैसा भेंट के लिए ले आतेझूल सिंह और उसके साथी किस्सा सुनाते-सुनाते थक जाते.किंतु लोगों का मन न भरताउनकी ललक बढ़ती ही जातीरात जब आधी से ज्यादा बीत जाती और लोगों को अगले दिन के काम की चिंता सताने लगतीतब कहीं भीड़ कम होनी आरंभ होती.
किस्से-कहानी के जरिये जो भी मिलताउसे वे चारों सेठ के पास जमा करते जातेसमय बीतता गयावे अपनी जिंदगी से खुश थेएक दिन सेठ ने चारों को अपनी बैठक में बुलाया—
तुमने अपनी लगनरात-दिन की मेहनत से जो काम किया हैउससे में बहुत प्रसन्न हूंअब तुम चारों आजाद होजहां भी चाहोजा सकते हो.’
जा सकते है!’ यह सुनते ही चारों के मुंह लटक गएसेठ ने उन्हें मुक्त कर दिया हैअब वे कर्जदार नहीं रहेयह खुशखबरी उन्हें खुश न कर सकी.
मैं ठीक कहता हूंअब आप अपने-अपने घर जा सकते होअपने अस्सी हजार रुपये और उनका ब्याज मैं वसूल कर चुका हूं.’ सेठ ने फिर दोहरायालेकिन वे चारों पत्थर के बुत बने रहेसेठ उन चारों पर नजर गढ़ाए थाउनके भीतर चल रही उथल-पुथल का अनुमान उसे थाउन्हें गांव में आए चार साल बीत चुके थेइन चार वर्षों में उन्होंने गांव के बच्चे से लेकर बूढ़े तक से आत्मीय संबंध बना लिए थेउन्हें वहां जिंदगी में जितना प्यार मिला उतना जिंदगी में और कहीं नहीं मिला थादूध और पानी की तरह वे गांव के जनजीवन में मिल चुके थे.
चारों सेठ के सामने गुम-सुम खड़े थेमुंह लटकाएघनी उदासी में डूबे हुएउनसे दूर होने के विचार से सेठ भी कम दुःखी नहीं थाआखिर सेठ ने फिर दोहराया— ‘तुम्हारी मजदूरी के कुछ रुपये मेरे पास बाकी हैंउन्हें लेकर जहां भी तुम्हारा मन करेवहां जा सकते होमगर भी रहो,ईमानदारी से रहनाखूब मेहनत करनामिलकर चलनासफलता सदा तुम्हारे साथ रहेगी.’
इसपर झूल सिंह की आंखों से आंसू बहने लगेतब तक गांववालों का हुजूम भी वहां जमा हो चुका थालोग उदास थेतब भरे गले से झूल सिंह ने कहा—‘हम आपके अहसानमंद हैं सेठजी.आपने हमें नई जिंदगी दी हैगांववालों से हमें प्यार और सम्मान मिला हैहमें आपसे मजदूरी नहीं चाहिएयदि हो सके तो एक मेहरबानी हमपर जरूर करें…’
हांहांबताओतुम्हारे लिए मुझे कुछ भी करके प्रसन्नता होगी.’ सेठ बोला.
जिस चबूतरे पर हमने अपने जीवन के सबसे अच्छे दिन बिताए हैंआप हमें अपनी बाकी जिंदगी उसी पर रहने की अनुमति दे दें तो हम आपके जिंदगी-भर गुलाम बने रहेंगे.’
दिया!’ सेठ के मुंह से सहसा निकलाउसकी आंखें भी नम हो चली थींलग रहा था कि बस बरसने ही वाली हैंखुद पर कठिनाई से काबू पाकर उसने कहा— ‘मेरी बेटी तुम्हारे किस्सों की दीवानी हैकल रात सोने से पहले मैंने जैसे ही उसको पता चला कि अब तुम चारों जाने वाले हो तो वह रोने लगीपूरी रात खाना भी नहीं खायामैंने लाख समझायापर वह नहीं मानीसुबह जब मेरी आंखें खुलीं तो उसके बिस्तर को गीला पायालगा कि पूरी रात रोती ही रही हैतुम चारों को वह कहानी बाले बाबा कहती हैयहां आने से पहले भी वह रो-रोकर कह रही थी कि मैं तुम्हें जाने से रोक लूंलेकिन वह ठहरी नादान बच्चीतुम मेरा सारा रुपया लौटा चुके होफिर मुझे क्या अधिकार है कि तुमसे रुकने को कहूंमैं यही सोचकर परेशान था कि तुम चारों के चले जाने के बाद उस बच्ची को कैसे समझाऊंगातुम्हारे फैसले से मुझे बड़ी राहत मिली हैअब मैं चलता हूंताकि जल्दी से जल्दी बच्ची तक यह खबर पहुंचा सकूं.’ इतना कहकर सेठ उठ गया.गांववालों की उदासी भी छंट गईवे चारों भी खुशी-खुशी अपने चबूतरे की ओर बढ़ गए.
उस समय पूरा गांव जैसे चबूतरे पर जमा थाउन चारों के वहां पहुंचते ही चबूतरा तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूंजने लगामौका अच्छा था और मौसम खुशगवारझूल सिंह खुद का रोक न सकाचबूतरे के पास पहुंचते ही उसने अपने दोनों हाथ उठाकर कहा—
अगर भला सोचो तो…’
मूल सिंह ने बात बढ़ाई—‘लोग भले मिलते हैं…’
फूल सिंह ने जोड़ा—‘खुद भला करो तो…’
भूल सिंह ने बात पूरी की—‘जग भला करता है!’
मित्रोकहानी तो पूरी हो चुकी हैअब बस इतना बताना बाकी है कि वे चारों जब तक भी वे वहां रहेगांववालों को रोज नए-नए किस्से-कहानियां सुनाकर उनका मनोरंजन करते रहेलोगों के बीच खुशियां बांटते रहेअब वे नहीं हैंतो भी उनकी कहानियां गांव के बूढ़े बच्चे की जुबान पर चढ़ी हुई हैंऔर वे चारों अपनी कहानियों के लिए पूरे इलाके में जाने जाते हैंवेयानी कहानी वाले बाबा!
ओमप्रकाश कश्यप