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शनिवार, जुलाई 09, 2011

परियों से दोस्ती

दुनिया में है सभी कुछ...सभी कुछ. संग-साथ रहने...साथ-साथ करने...साथ-साथ खाने-पीने-जीने और संग-साथ आगे बढ़ने के लिए... जैसे कांटे के साथ फूल...रास्ते के साथ धूल...बादल के साथ बिजली...भंवरों के साथ तितली...कुएं के बीच पानी...राजा के साथ रानी...धारा के साथ बंध...चंदन के साथ गंध...नाना के साथ नानी और बच्चों के साथ नन्ही-सी डांट, घना-सा प्यार, थोड़ी शैतानी और रोज एक कहानी...
तो आज बच्चे इस कहानी का मजा लें...!
एक था लड़का. नटखट उम्र वाला. पढ़ने से ज्यादा समय खेल में लगाता. नाम तो था बांकेलाल. लेकिन सब उसको छबीला कहते थे. छबीला को भी यह नाम बुरा नहीं लगता था. कोई उसे छबीला कहकर पुकारे तो आगे बढ़कर जवाब देता. मानो उसका बचपन ही उसे पुकार रहा हो. छबीला के पिता बढ़ई का काम करते थे. हाथ के हुनर के लिए वे दूर-दूर तक जाने जाते. छबीला का पूरा दिन दोस्तों के साथ, खेल-खेल में बीतता. शाम को पिता दुकान बंदकर घर लौटते तो पीछे से वह भी वहां पहुंच जाता. पिता के औजार उठाकर लकड़ी छीलने लगता. लोग यह देखकर हैरान होते.
गंगा, तू बड़ा भाग्यवान है, जो इतना अच्छा बेटा मिला है, साथ-बराबर काम करता है.’ छबीला को काम करते देख लोग कहते. पिता चुप रहकर सबकी बात सुनते. मन को थोड़ी तसल्ली भी रहती कि चलो खेल के बहाने ही सही, औजारों को चलाना तो सीख रहा है. इसी तरह हाथ सध गया, तो लोगों का कहा भी सच हो जाएगा. उस समय छबीला पर अजीब-सी धुन सवार होती. पिता काम छोड़कर उठ जाते फिर भी अपने काम में डूबा रहता.
पिता चाहते थे कि दिन में कुछ समय निकाले तो काम की कुछ बातंे बेटे को भी सिखा दी जाएं, ‘दिन-भर तो फुर्सत मिलती नहीं. रात को जब आराम करने का समय होता है, तब तू काम पर आता है!’ पिता शिकायत करते.
छबीला का मन होता कि कहे, ‘दोस्तों के साथ खेलना क्या काम नहीं है...पहुंचने में जरा भी देर हो जाए तो वे मुंह फुला लेते हैं. इतने अच्छे दोस्तों को क्या नाराज किया जा सकता है!’ लेकिन पिता की नाराजगी के डर से कह नहीं पाता था.
जल्दी आना..घर पर तेरी मां रोटी के लिए इंतजार कर रही होगी.’ जाने से पहले पिता कहते.
ठीक है!’ छबीला गर्दन झुकाए जवाब देता.
हाथ संभालकर चलाना. कल ही धार लगवाकर लाया हूं...’
छबीला की अलग मुश्किल थी. बढ़ई का बेटा. ऊपर गांव में ढेर सारे दोस्त. कोई उससे गिल्ली-डंडा बनाने की मांग करता तो कोई. गेंद का बल्ला. इन्हें बनाने में उसको आनंद भी खूब आता. अपने हाथ से बनी गिल्ली देखकर उसको गर्व की अनुभूति होती. लगता कि वह भी कुछ कर सकता है. पिता को दिखाना चाहता. लेकिन इस डर से कि वे उसे अपना काम देने लगेंगे, वह चुप्पी साधे रहता. मुफ्त में गिल्ली बना देने के लिए दोस्त उसकी खूब प्रशंसा करते. यही उसके मन को भाता. इसीलिए यदि आधी रात तक जागना भी पड़े, वह बिना रुके काम करता था.
एक बार छबीला के दोस्तों ने उससे गिल्ली की फरमाइश की. सुबह होते ही छबीला जंगल के लिए निकला और लकड़ी काट लाया. पिता के जाने के बाद वह वह लकड़ी छीलने बैठा गया. इस काम का उसे खासा अभ्यास था. इससे पहले भी कई बार गिल्लियां बना चुका था. इसलिए निश्चिंत होकर लकड़ी के दोनों सिरों को नुकीला बनाने लगा. मगर आश्चर्य, उसे लगा कि हाथ उसके काबू से बाहर हैं. एकाएक वह चौंक पड़ा.
लकड़ी सिरे पर नुकीली होने के बजाय, गोलाई में ढल चुकी थी. जैसे किसी का सिर हो. छबीला ने एक बार फिर उसे नुकीला करने का प्रयास किया, किंतु औजार कुछ और ही काम कर रहे थे. जैसे की काबू से बाहर हों, लकड़ी अपने आप पुतली के रूप में ढलती जा रही थी. आखिर तंग आकर उसने लकड़ी को वहीं छिपाकर रख दिया. दूसरे दिन दोस्तों ने देखते ही पूछा‘छबी भईया आज के खेल की शुरुआत तो नई गिल्ली से होनी चाहिए!’
अभी उसमें कुछ काम बाकी है.’ छबीला ने अपनी असमर्थता जाहिर की. बच्चे मान गए. उस दिन खेल रोज की तरह चला. शाम को जैसे ही उसके पिता काम करके उठे, उसने फिर औजार संभाल लिए. लकड़ी का एक और टुकड़ा उठाकर काम में जुट गया, पूरे जोश के साथ. थोड़ी देर में ही उसका उत्साह फीका पड़ने लगा. लगा कि हाथ आज फिर बेकाबू हैं. उनपर किसी और का नियंत्रण है. उस दिन उसने लकड़ी के दो टुकड़ों को गिल्ली में ढालने का प्रयास किया. नतीजा वही ढाक के तीन पात. गिल्ली के स्थान पर दो पुतलियां और तैयार हो गईं. बेहद सुदर. गिल्ली न ला पाने के कारण दूसरे दिन दोस्तों के बीच उसकी खूब भद्द पिटी. कुछ तो नाराज ही हो गए. उस दिन सब अनमने से रहे. यहां तक कि खेल भी नहीं हो सका. सभी समय से पहले मैदान छोड़कर चले गए. छबीला चुप. कहे तो क्या कहे. कैसे बताए कि उसके अपने ही हाथ उसके काबू से बाहर हैं. तब कौन उसपर विश्वास करेगा. पुतलियां बनाने की जानकारी मिलते ही सब उसका मजाक उड़ाएंगे. नए-नए सवाल करेंगे. कैसे समझाएगा वह उन सबको!
दिन-भर वह अनमना-सा रहा. खाने-पीने में भी उसका मन नहीं लगा. शाम होते-होते उसने अपना इरादा फिर मजबूत कर लिया. जैसे ही पिता उठे, उसने औजार संभाल लिए. लेकिन यह क्या. तीसरे दिन भी औजार किसी और के इशारे पर काम कर रहे थे. उसके सामने तीन पुतलियां तैयार पड़ी थीं. सुंदर और मनभावन. अगर दोस्तों को नई गिल्ली देने का वायदा न किया होता तो वह उन पुतलियों को देखकर प्रसन्न ही होता. मान से उन्हें अपने मित्रों को दिखाता. लेकिन तीन दिनों से बिना गिल्ली के खेल जम नहीं पा रहा था. सारा दोष उसी पर था. उसे अपने ऊपर बहुत गुस्सा भी था. लकड़ी का चैथा टुकड़ा उसके हाथों में था. जिसे वह किसी भी प्रकार गिल्ली का रूप दे देना चाहता था. लेकिन हैरान था. छैनी को चलाता सीध में, वह गोलाई में घूम जाती. इसी तरह काम करते-करते घंटा बीत गया. मां उसको बुलाने भी आई. वह गया भी. किंतु जल्दी-जल्दी रोटियां निगल, तत्काल लौट भी आया. आते ही फिर काम में जुट गया. एक के बाद एक, चार बार उसने कोशिश की. जितना उसे अनुभव था, उतने तरीके से खुद को आजमाया. लेकिन बेकार, बिल्कुल बेकार...एक भी बार वह गिल्ली नहीं बना सका.
बाहर अंधेरा छा गया था. दिये का तेल पूरा हो चुका था. गली में आना-जाना भी सिमट गया था. सोने का समय हो आया था. उसकी मां उसको सुलाने के लिए बुला चुकी थी. आखिर वह हताश होने लगा.
लगता है कि मेरा दिमाग खराब हो चुका है. एक भी बार काम ढंग से नहीं हुआ.’ छबीला ने छैनी-हथौड़ी एक ओर पटक दी. वह चारों पुतलियों को भी फेंकने ही जा रहा था कि तभी उसको लगा कि कोई सिसक रहा है.
क्....क्...कौन है?’ उसने पूछा. मगर जवाब के बजाय सिसकियां ही आती रहीं. साथ में हंसने की आवाज. महीन जैसे कि कहीं पर घुंघरू बज रहे हों...खनन-खनन...खन-खनन! उसने नजर घुमाकर देखा. हंसी थमी तो सिसकियों की आवाज दुगुनी हो गई.
बोलता क्यों नहीं?...कौन है?’
मैं इप्पी?’ सिसकियों के बीच से सुरीली आवाज आई.
इप्पी कौन?’
धरती की सबसे छोटी पुतली...मुझे बचाओ. मेरा दम घुट रहा है. मुझे बचालो छबीला जी...!’
वह चौंका. इतने सम्मान के साथ तो उससे कोई भी बात नहीं करता. वह डरा. उसे मां की सुनाई कहानी याद आई. जिसमें एक चुड़ैल राहगीरों से मीठी-मीठी बात करके बात करके रात होने तक उनको बिठाए रखती थी. जो भी उसकी बातों में आकर रुक जाता. उसे अंधेरा होते ही खा जाती. फिर भी उसने मन को मजबूत करके पूछा—‘तुम कहां हो...मैं तुम्हें कैसे बचा सकता हूं?’
मेरे गले के चारों ओर लकड़ी की मोटी फांस बनी हुई है. उसी से मेरा दम घुट रहा है.’ छबीला ने सामने पड़ी पुतलियों पर निगाह डाली. चारों पुतलियां सामने जमीन पर पड़ी थीं. उनमें से एक का गला अधूरा बन पाया था. वहां लकड़ी की मोटी पर्त बाकी थी. किंतु लकड़ी की पुतली बोल सकती है, यह उसके लिए एक आश्चर्य था. तभी उसका ध्यान दिये की लौ की ओर गया. वह बुझने के लिए लपलपा रही थी.
अभी तो मुझे जाना होगा. कल शाम को देखा जाएगा.’ छबीला डरपोक नहीं था. लेकिन उस समय वह किसी परेशानी में पड़ने से बचना चाहता था.
मेरी सांस रुक रही है...मैं कल शाम तक जी नहीं पाऊंगी...’
अंधेरे में कहीं उल्टी-सीधी छैनी लग गई तो?’
ना...आराम से करना. मुझे छैनी की आवाज से भी डर लगता है.’ धरती की सबसे छोटी पुतली इप्पी ने कहा. इसी के साथ हंसने की आवाज आई. तब इप्पी ने मुड़कर उन तीनों से कहा—‘क्या हुआ मेरी मेरी अच्छी बहनो?’
ही...ही...ही...तुम्हारे गले में लकड़ी का फंदा ऐसे लग रहा है, जैसे कि हंसली.’ बाकी तीनों बहनें हंसती हुई बोलीं.
ओर मेरी नन्ही बहनो... ठिठोली से बाज आओ. जल्दी से कुछ रोशनी का इंतजाम करो.’
उसी समय चमत्कार हुआ. पूरी दुकान रोशनी से नहा गई. रोशनी इतनी तेज थी कि छबीला की आंखें ही चौंधिया गईं. उसे देखकर वह घबरा गया—‘अरे...रे! इतनी तेज रोशनी देखकर तो पूरा गांव यहां जुट जाएगा.’
घबराओ मत...’ इस बार एक ओर पुतली बोली. यह रोशनी सिर्फ दुकान तक सीमित है, बाहर अब भी अंधेरा है.’ यह सुनकर छबीला डरा. उसे लगा कि वह किसी चक्कर में फंस चुका है. लेकिन अब क्या हो सकता है. जल्दी से मां लिवाने के लिए पहुंच जाए, तभी छुटकारा मिल सकता है. यही सोचता हुआ, वह जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगा.
उई...मार ही डालोगे क्या?’
अब क्या हुआ...?’
धीरे-धीरे हाथ चलाओ. ऐसे तो मेरी गर्दन ही टूट जाएगी...’ इप्पी ने कहा.
आखिर तुम हो कौन?’ छबीला ने पूछा.
हम चारों सगी बहनें हैं. तांत्रिक ने हमें पीपल के पेड़ में कैद किया हुआ था. आज तुमने हमें आजाद किया है. हम चारों तुम्हारी अहसानमंद हैं.’
छबीला के मन में पुतलियों के प्रति सहानुभूति जन्म लेने लगी थी. तभी मां की सुनाई कहानी की चुडै़ल की याद आ गई. कहीं ये उसे फुसलाने का प्रयास तो नहीं कर रहीं. वह सावधान हो गया. कुछ ही देर में चैथी पुतली का गला बन गया. उसके चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगी थी.
लो अब मुझे छुट्टी दो...!’ मां इंतजार कर रही होगी.
क्या हमें इस दुकान में बंद करके जाओगे?’ एक पुतली बोली.
तुम जहां भी जाना चाहो, जा सकती हो.’ छबीला ने उत्तर दिया.
हमारे पैर देख रहे हो. इन छोटे-छोटे पैरों से हम कितनी दूर जा सकती हैं. अभी चलना शुश्रू कर दें तो कल का पूरा दिन लगा जाएगा उस ठिकाने तक पहुंचने में.’ एक पुतली ने कहा.
रास्ते में कोई हमें नुकसान भी पहुंचा सकता है!’ दूसरी ने जोड़ा.
बातें तो खूब बना लेती हो...’ छबीला ने मन ही मन कहा. फिर कुछ संभलकर बोला, ‘इतनी रात गए मैं तुम्हें छोड़ने जंगल में तो जा नहीं सकता.’
हमारे लिए, इतना काम तो तुम्हें करना ही पड़ेगा. वैसे भी इस हालत में हम सूरज की किरणों का सामना कर ही नहीं सकतीं.’
आखिर तुम चाहती क्या हो?’ वह परेशान हो चुका था. रात का समय. उसके इंतजार में मां अभी तक सो भी पाई होगी या नहीं, यह चिंता भी उसको सता रही थी.
तुम हमें उस पीपल के पेड़ तक पहुंचा दो. सूरज निकलने से पहले...’ छबीला को लगा कि वह फंस चुका है. बुरी तरह. बाहर रात गहरा रही थी. अंधेरा भांय-भांय कर रहा था. सिवाय कुत्तों के भूंकने के कोई और आवाज नहीं थी. चारों ओर गहरा सन्नाटा था. उसकी हिम्मत जवाब देने लगी. उसने चारों पुतलियों की ओर देखा. मुंहकर निकल जाने का खयाल भी दिल में आया. लेकिन उठकर जाने की लगा था कि वे चारों रोने लगीं.
खूब रोओ...रोती रहो...मुझे तुम्हारी कोई परवाह नहीं है...’ उसने कहा.
हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?’
जैसे कुछ जानती ही नहीं, तीन दिनों से मैं गिल्ली बनाने की कोशिश कर रहा हूं. मेरे दोस्त मुझसे नाराज हो चुके हैं. आज उनमें से एक भी मेरे साथ खेलने को तैयार नहीं था...कल फिर मुझे उनके सामने खाली हाथ जाना पड़ेगा...’
ओह तो यह बात है...हम जानतीं हैं कि तुम दिल के बहुत अच्छे हो. किसी को भी दुःखी नहीं देख सकते. ऐसे बच्चों को तो ईश्वर भी प्रसन्न देखना चाहता है. अब हमारी बात सुनो, सुबह होने में बस कुछ ही देर बाकी है. बिना कोई देर किए हमें हमारे ठिकाने तक पहुंचा दो...’ छबीला ने दुकान के बाहर निगाह डाली. आसमान पर सफेदी छाने लगी थी. अरे! रात तो सचमुच बीत गई. उसको पता भी नहीं चला. मां या पिताजी में से कोई भी उसको लिवाने आया. ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ. कभी भी नहीं. कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है. पर अब क्या हो...उसको लगा कि वह फंस चुका है. चारों को नाराज करने से मुश्किल और भी बढ़ सकती है, सोचते हुए उसने चारों पुतलियों को उठा लिया. दुकान से बाहर आया तो गली से कुत्तों के भौंकने की आवाज उसके कानों में पड़ी. किंतु पुतलियों को देखते ही सारे कुत्ते एकदम शांत हो गए. अनुशासित होकर उसके पीछे चलने लगे. जैसे किसी राजकुमार के पीछे उसके सैनिक जा रहे हों. रात अभी भी बाकी थी. रास्ते पर अंधेरा छितराया हुआ था. तभी उसको ठोकर लगी. पुतलियों को बचाने के लिए उसने अपनी पकड़ बढ़ा दी.
जरा आहिस्ता से. इतनी जोर से नहीं कि हमारी सांस ही रुक जाए.’ एक पुतली की घुटी-घुटी चीख निकली.
मुझे डर लग रहा है. मैं कभी इतनी रात को अकेला नहीं गया.’ छबीला ने मन की बात कही.
समझ गईं. तुम्हारा मन लगाने के लिए मै एक कहानी सुनाती हंू. इससे रास्ता भी कट जाएगा.’ एक पुतली ने कहा. कहानी की बात सुनकर छबीला का हौसला बढ़ा. उसकी मां रोज उसको एक कहानी सुनाती थी. जिसे वह बहुत चाव से सुनता था.
और तब उन चारों में सबसे बड़ी पुतली ने कहानी शुरू कर दी—
कई वर्ष पहले की बात है. एक राजा था. उसके चार बेटियां थीं. बहुत सुंदर. चारों आपस में एक-दूसरे से खूब प्यार करतीं. चारों ही समझदार और सुसंस्कृत थीं. सुंदरता का तो ठिकाना ही क्या. जो भी उन्हें देखता तारीफ किए बिना न रहता. सभी राजा और रानी के भाग्य की प्रशंसा करते. यह कहकर सराहते कि पुराने जन्म के कुछ पुण्य ही होंगे, जिनके कारण उन्हें इतनी सुशील और समझदार बेटियां मिली हैं. फिर भी राजा और रानी दुःखी रहते थे. राजा को अपने उत्तराधिकारी की चाहत थी. रानी को अपना स्वार्थ राजा को किसी भी तरह खुश रखने में नजर आता. दोनों ही एक बेटा चाहते थे. जो बाद में राजपाट संभाल सके. बेटे की कामना में ही चार-चार बेटियां जन्मी थीं. चारों राजकुमारियां अपने माता-पिता के मन की बात को समझतीं. परेशान रहतीं...
एक दिन राजा के दरबार में एक तांत्रिक आया. राजा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया. जाने से पहले तांत्रिक ने आशीर्वाद देने लगा तो राजा ने अपने मन की बात उसके सामने रख दी.
तेरे भाग्य में पुत्र नहीं है...’ तांत्रिक ने जोर से कहा. इसपर पूरे दरबार को मानो सांप सूंघ गया. दरबारी समझ ही नहीं पाए कि क्या जवाब दें. स्वयं राजा भी सोच में पड़ गया.
महाराज कोई तो उपाय होगा...?’ कुछ देर बार राजा ने जैसे-तैसे सवाल किया.
एक रास्ता है, जिससे तू अपना उत्तराधिकारी पा सकता है.’
कौन-सा महाराज?’
तू अपनी चारों बेटियों को मुझे सौंपने को तैयार हो तो मैं तेरे लिए ऐसा अनुष्ठान कर सकता हूं, जिससे तुझे निश्चय ही पुत्र की प्राप्ति होगी.’ कुटिल तांत्रिक ने जाल फैंका. पुत्र की कामना में राजा अंधा हो चुका था. तांत्रिक की शर्त मानने में उसने पल नहीं गंवाया. जैसे उसकी बेटियों की न होकर गाय-भैंस की मांग की गई हो. तांत्रिक अनुष्ठान करने लगा. संयोग से रानी गर्भवती हुई और समय आने पर उसे संतान भी हुई. राजा को उसका बेटा मिला, राज्य को उसका उत्तराधिकारी. राजा और रानी की खुशी का पारावार न रहा. इधर राजा पुत्र प्राप्ति की खुशी मना रहा था, उधर तांत्रिक ने जाने की इजाजत मांगी. साथ में चारों राजकुमारियां भी.
जाओ-जाओ ले जाओ...सारा राजपाट भी ले जाओ. अब मुझे किसी बात की चिंता नहीं है. ज्योतिषियों ने बताया है कि मेरा बलशाली बेटा एक दिन चक्रवर्ती सम्राट बनेगा.’ यह सुनकर चारों राजकुमारियां रोने लगीं. लेकिन राजा क्या...वह अपनी खुशी में मग्न था.
चारों राजकुमारियों को तांत्रिक अपने ठिकाने पर ले गया. वहां पहुंचते ही तीनों डर गईं. घर के स्थान पर वह एक गुफा थी, जिसमें चारों ओर हड्डियां, कंकाल, गंदे बर्तन, मांस, मदिरा वगैरह बिखरे पड़े थे. अजीब-सी गंध के कारण वहां रुकना भी कठिन था.
लड़कियो, आज से मैं अपनी पूजा फिर प्रारंभ करूंगा...’ गुफा में पहुंचने के साथ ही तांत्रिक ने कहा.
जी...’ एक ने जैसे-तैसे प्रश्न किया.
देखो, यह बहुत खास पूजा है...मैं इस बार देवी को प्रसन्न करने में लगा हूं. पूजा पूरी होते ही मैं दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी बन जाऊंगा. कोई मेरा मुकाबला नहीं कर पाएगा.’ तांत्रिक ने कहा, ‘तुम जरा वह मटकी तो उठा लाओ.’
मंझली राजकुमारी धीरे-धीरे चलती हुई उस हंडिया के पास पहंुची. जैसे ही उसने हंडिया उठाई उसके भीतर से दुर्गंध का तीव्र झोंका उसकी नाक में पड़ा. जैसे-तैसे उसने हंडिया उठा ली. लेकिन भारी होने के कारण उसे लेकर चलना मुश्किल हो गया.
सावधानी से...’ तांत्रिक ने उसे चेताया, ‘इसमें जंगली बिल्लियों का ताजा खून है...एक भी बूंद गिरने न पाए.’ खून का नाम सुनते ही मंझली राजकुमारी घबरा गई. उसकी सांसें चलने लगीं. खुद को संभाल पाना भी मुश्किल हो गया. बड़ी राजकुमारी उसकी मदद के लिए पहंुच पाए, उससे पहले ही वह लड़खड़ाई और धड़ाम से जमीन पर जा गिरी. मटकी में भरा खून जमीन को लाल कर गया.
मूर्ख लड़की...तूने मेरी महीने-भर की मेहनत पर पानी फेर दिया. बिल्लियों का खून जमा करने के लिए अब मुझे फिर जंगलों में भटकना पड़ेगा...’ कहते हुए उसने मंझली राजकुमारी को खूब पीटा. जब थक गया तो वैसी ही एक हंडिया लेकर जंगल को निकल गया. उसके जाते ही तीनों बहनें बेहोश राजकुमारी को होश में लाने के प्रयास में जुट गईं. तांत्रिक गुस्से में गुफा का दरवाजा बंद करना ही भूल गया था. चौथी के होश में आते ही वे गुफा से बाहर निकलीं. सहसा तांत्रिक को दुबारा सामने देखकर घबरा गईं.
आखिर मेरा संदेह सही निकला. तुम भाग न जाओ, यही सोचकर मैं बीच रास्ते से लौट आया हूं. अब मैं तुम्हें ऐसा दंड दूंगा कि मेरी मर्जी के बिना तुम कहीं आ-जा भी नहीं सकोगी.’ इसके बाद उसने चारों राजकुमारियों को लकड़ी की छोटी-छोटी पुतली बनकर गुफा के बाहर बने पीपल के तने में छिपा दिया और खुद जंगल की ओर चला गया.
अपनी हालत पर रोते-रोते उन्हें वर्षोें बीत गए. पीपल के तने में रहते हुए वे एक दिन उसी का हिस्सा बन गईं. वे रोज तांत्रिक का इंतजार करतीं...कि शायद किसी दिन उसे उनपर दया आ जाए. लेकिन वह नहीं लौटा. गरमी के दिनों में चरवाहे उस पेड़ के नीचे आकर विश्राम करते थे. एक दिन उन्होंने एक चरवाहे के मुंह से सुना कि जंगली बिल्लियों की खोज में भटकते हुए एक तांत्रिक को भेड़िये ने मार गिराया है. वे समझ नहीं पाईं कि इस खबर पर खुशी प्रकट करें या दुःख. तांत्रिक की मौत की खबर उनके लिए अच्छी ही होती. दुःख यह था कि वे जिस कैद में थीं, उसके बारे में केवन तांत्रिक ही जानता था, वही उनको निकाल सकता था. उसकी मौत के बाद अपने हालात पर आंसू बहाने के अलावा चारों राजकुमारियों के पास कोई और रास्ता ही नहीं था.’
आगे क्या हुआ...चारों राजकुमारियां आजकल कहां हैं?’
एक दिन एक राजकुमार वहां पहुंचा. उसने खेल-खेल में उस डाली को काट डाला जिसमें वे कैद थीं. उसने उनको लकड़ी की कैद से भी आजाद कराया...’ छबीला समझ गया कि वह अपनी ही कहानी सुना रही थी.
कितनी दुःखभरी कहानी है, तुम चारों की...’ छबीला ने कहा, ‘क्या तुम्हारे पिता ने कभी तुम्हारी खोज नहीं की?’
की थी. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. हमारा भाई वह बहुत जिद्दी और घमंडी था. राजा बनने की बहुत जल्दी थी. एक दिन धोखेबाज सेनापति की बातों में आकर उसने पिताजी को गिरफ्तार करवा लिया. उन्हें जेल में डालकर खुद राजा बन बैठा. पिताजी उस दिन हमें याद कर बहुत रोये. बताते हैं कि वे जेल में हमेशा रोते ही रहते थे. रात-दिन रोने से पहले उनकी आंखें गईं. फिर दुःख और तनाव में एक दिन पागल हो गए.’
तुम्हें यह सब कैसे मालूम...?’
उस पेड़ के नीचे राहगीर आकर रुकते रहते थे. हमने यह किस्सा उन्हीं के मुंह से सुना था.’
ओह!’ छबीला के मुंह से निकला.
चलते-चलते पीपल का पेड़ आ गया. रात्रि का चैथा पहर शुरू हो चुका था. पीपल के पत्तों की खड़बड़ाहट हवा में डर घोल रही थी. दूर कहीं कुत्ते भोंकते तो कभी सियार की आवाज हवा में डर घोल जाती. वह रात में पहली बार घर से निकला था. उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था इसलिए जल्दी से जल्दी वापस लौट जाना चाहता था. पीपल के पास पहंुचकर उसने चारों को उसकी जड़ों के पास बने खोखड़ में डाल दिया. वापस मुड़ने को ही था कि सहसा उसे कुछ याद आया. वह पलटा और उन चारों के ऊपर झुककर बोला— ‘क्या तुम सब हमेशा ऐसे ही रहोगी?’
यह सुनते ही उन चारों के चेहरे की पीड़ा और गाढ़ी हो गई. कुछ देर तक वहां पर सन्नाटा पसरा रहा. मानो बताने से पहले चारों उसको तोल रही हों, ‘अगर सचमुच जानना चाहते हो तो सुनो.’ छबीला तने के सहारे बैठ गया. तब उनमें से एक ने कहना प्रारंभ किया—‘पिछले दिनों एक महात्मा इस पीपल के नीचे ठहरे थे. वही बता रहे थे कि प्रार्थना में बहुत ताकत होती है. किसी जगह के लोग यदि मिलकर सच्चे मन से प्रार्थना करें तो बड़े से बड़े शाप से छुटकारा पाया जा सकता है.’
यह तो एकदम आसान है. मैं अभी आपके राज्य में जाकर खबर दिए देता हूं. उस राज्य की प्रजा अपनी राजकुमारियों के लिए अवश्य प्रार्थना करेगी.’
अब यह संभव नहीं है. वैसे भी जहां का राजा कमजोर हो, वहां ऊपर से नीचे तक षड्यंत्र चलते रहते हैं. ऐसे में सच्चे मन से कोई किसी का साथ नहीं देता. भइया के राज्य में तो प्रजा इतनी दुःखी है कि वह पूरे राजपरिवार से नफरत करती है.’ बड़ी पुतली ने कहा. उसकी तीनों बहनों का चेहरा भी अवसाद से घिर गया. छबीला भी समझ नहीं पाया कि कैसे उन्हें तसल्ली दे. अचानक उसके चेहरे पर चमक आ गई. वह बोला—‘मेरी मां सुनाया करती है कि सपना अगर बड़ा और इरादा यदि नेक हो तो मुश्किलों की बड़ी से बड़ी दीवारें गिराई जा सकती हंै.’
काश! हमारी मां भी ऐसी ही होतीं.’ गहरे दुःख में वह इतना ही कह पाईं.
वह बहुत बुद्धिमान भी है...जरूर कोई न कोई रास्ता ढूंढ निकालेगी...’ अपनी मां की तारीफ से उत्साहित होकर छबीला ने कहा.
छबीला वापस लौट आया. घर पर उसकी खोज मची हुई थी. सभी उसके लिए परेशान थे. मां उसे देखते ही चिपट गई. रात-भर घर न आने का कारण पूछा तो उसने सारी घटनाएं बयान कर दीं. छबीला की बात सुनकर उसकी मां भी सोच में पड़ गई.

पंद्रहवें दिन लोगों ने एक नन्हे बालक को देखा. उसके कपड़े पीले थे...ऊंचे माथे पर चैड़ा तिलक...घुंघराले बाल...आंखें बड़ी-बड़ी...बगल में एक पीले रंग का झोला...कि जैसे बालसंन्यासी हो. हाथों में इकतारा लिए वह गांव-गांव-गली-गली गाता फिरता था—
एक पिता की चार थीं बेटी
चारों ही किस्मत की हेटी
एक लुटेरा गांव में आया
बातों से सबको भरमाया...
उसका गला सुरीला था. आवाज में दर्द. जो भी सुनता कलेजा थामकर रह जाता. आंखों से अश्रुधार बहने लगती. लोग रोककर, पास बैठाकर उससे चारों उन बेटियों की कहानी सुनना चाहते, जिनका जिक्र वह अपने गीत में करता था. परंतु उनकी ओर ध्यान दिए बिना बालसंन्यासी आगे बढ़ जाता. लोग दुःखी मन से खड़े रह जाते. चारों लड़कियों के बारे में उनकी जिज्ञासा निरंतर बढ़ती जा रही थी.
बेटा, आगे भी तो सुनाओ?’ एक दिन एक ममतामयी वृद्धा ने उसका रास्ता रोककर खड़ी हो गई.
आगे सुनने के लिए तो वक्त चाहिए मैया...’
बुढ़ापे में जब तक आंख न मिचे तब तक तो वक्त ही वक्त है बेटा.’ बुढ़िया हंसी.
पूरा शहर इस कहानी को सुनना चाहता है...’ आसपास जमा हो आए लोगों में से एक ने कहा.
तो ठीक है, इस पूर्णिमा को पंचायती चैपाल पर...’
पर बेटा चैपाल पर हम औरतें तो चढ़ नहीं सकतीं.’
अगर इस गांव के मर्दों को पूरी कहानी सुननी है तो तुम्हें इज्जत के साथ चैपाल पर बिठाना ही पड़ेगा मैया.’
बात खुशबू के झोंके की तरह पूरे गांव में फैल गई. लोग बालसंन्यासी के मुंह से पूरी कहानी सुनने को उतावले थे. लेकिन औरतों को चौपाल पर चढ़ने की शर्त...
ना ऐसा तो कभी नहीं हुआ. एक गीत को सुनने के लिए क्या गांव की इज्जत को ही बट्टा लगवालें...’ किसी ने कहा.
कैसा बट्टा, अरे, हम जो तुम्हारा घर-परिवार संभालती हैं, तुम्हारी औलाद को पैदा करके बड़ा करती हैं, हमें क्या इतना भी हक नहीं है कि चैपाल पर आ सकें. उस चैपाल जिसको बनाने के लिए जितना पसीना मर्दों ने बहाया है, उतना ही औरतों ने भी.अभी तक हम चैपाल की ओर झांकती नहीं थीं तो इसलिए कि वैसा कोई काम नहीं था. आज मौका आया है तो तुम सब ओछेपन पर उतर आए.’ एक औरत चीखकर बोली. उसका साथ वहां पर मौजूद दूसरी औरतों ने भी दिया. उसके बाद तो गांव में बहस-सी छिड़ गई. कुछ लोगों ने बालसंन्यासी को मजा चखाने का दावा किया. इसपर गांव के ही दूसरे लोग उसके पीछे पड़ गए. आखिर समझौता हुआ. सब आने वाली पूर्णिमा का इंतजार करने लगे.
उस दिन शाम से ही पूरा गांव चैपाल पर जमा हो गया था. चैपाल गांव के चैराहे पर थे, जहां से एक रास्ता पीपल के उसी पेड़ तक जाता था. ठीक समय पर वह बालसंन्यासी प्रकट हुआ. हाथ में अपना इकतारा थामे. माथे पर चमकीला तिलक, चेहरे पर अद्भुत दीप्ति, वैसे ही घुंघराले बाल...होठों पर अलबेली मुस्कान लिए...बालगोपाल का प्रतिरूप. लोगों की निगाह उसके चेहरे पर जमी रह गईं. रात की आमद के साथ आसमान में जैसे ही चांदी के थाल जैसा गोल-गोल, चमकीला चांद दिखाई पड़ा, इकतारे की स्वरलहरी हवा में गूंजने लगी. उसकी आवाज में अजीब-सा सम्मोहन था. पूरी चैपाल पर नीरवता व्याप गई. और तब उस बालसंन्यासी ने गाना शुरू किया...वही गीत, परंतु पहले से कहीं अधिक मर्मभेदी आवाज में...
एक पिता की चार थीं बेटी
चारों ही किस्मत की हेटी
एक लुटेरा गांव में आया
बातों से सबको भरमाया
हर कर ले गया राजकुमारी
रोती रही बेबस महतारी
पीपल के घट चारों लेटी
रोतीं चार अभागन बेटी...
जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ा हवा जैसे थम सी गई. लोग जैसे पत्थर के बुत बने सुन रहे हों. गीत में अथाह वेदना थी. बालसंन्यासी के स्वर ने उसे और भी अधिक निखार दिया था. देखते ही देखते लोगों की आंखों से आंसुओं की झड़ी बहने लगीं. कुछ कमजोर दिल औरतें तो मुंह नीचा करके सुबकने लगीं. हर आंख गीली...हर गाल नम...यह सच्चे आंसू थे...एकदम सच्चे और अनमोल. गीत कब पूरा हुआ लोग यह जान ही नहीं पाए. चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था. लोग उठें, घर जाने की सोचंे उससे पहले ही एक और चमत्कार हुआ. सबकी निगाह उत्तर दिशा की ओर उठ गई. दूर पीपल के पेड़ के नीचे उन्हें कुछ उगता हुआ नजर आया. लोगों की आंखें उसी की ओर उठ गईं. धीरे-धीरे चार मूर्तियां आकार लेती दिखाई दीं. एक साथ वे उठीं. नील-चांदनी में उनकी पौशाक झिलमिलाने लगी.
भूत...’ भीड़ के बीच से कोई चिल्लाया. लोगों में खलबली मच गई.
बैठे रहिए...डरिये मत. कुछ नहीं होगा...’ बालसंन्यासी ने आश्वासन दिया. और कोई समय होता तो अब तक भगदड़ मच जाती. किंतु उसकी आवाज में जादू था. लोग अपने स्थान पर जमे रहे. सभी कि निगाहें उसी और लगी थीं. धीरे-धीरे वे पास आने लगीं. भीड़ की धड़कनें पल-पल सवाई हो रही थीं. अब उन्हें पहचाना जा सकता था—‘अरे! ये तो हमारी राजकुमारियां हैं.’ भीड़ में से कोई वुजुर्ग चिल्लाया.
राजकुमारियां...उन्हें तो तांत्रिक ले गया था...!’
बालसंन्यासी ने जो सुनाया वह इन्हीं की दर्द-भरी दास्तान है.’ किसी ने कहा. इसी के साथ उन वहां मौजूद लोगों के मन में उन राजकुमारियों के प्रति सहानुभूति उमड़ने लगी. तब तक वे चारों करीब आ चुकी थीं. बालसंन्यासी उनके स्वागत में उठकर खड़ा हो गया. उसने उन चारों को मंच पर आमंत्रित किया. तब बड़ी राजकुमारी वहां मौजूद लोगों को संबोधित करके बोली—‘आपने हमारे लिए सच्चे मन से सहानुभूति प्रकट की. इसके लिए हम चारों आपकी आभारी हैं...केवल यही कहने हम यहां आई थीं.’
लोग सकते में थे. उसी समय भीड़ में से एक वृद्ध उठकर खड़ा हो गया. राजकुमारियों को संबोधित करके उसने कहा—‘प्रजा तो कब से आपकी प्रतीक्षा कर रही थी. इस बीच हमें जो दुःख झेलने पड़े हैं, वे भी आपसे छिपे न होंगे. अच्छा हुआ जो आप आ गईं राजकुमारी...आप यहां का राजपाट संभालिए...हम सब आपके साथ हैं.’
हम चारों तो लड़कियां हैं...इतना बड़ा राज्य हम कैसे संभाल सकती हैं.’ राजकुमारी ने कहा, ‘आप तो इस राज्य के महामंत्री थे न! ये शब्द एक दिन आप ही ने तो पिताजी से कहे थे! भूल गए क्या?’ राजकुमारी ने कहा. इसपर वह बूढ़ा फफककर रोने लगा.
मुझे माफ कर दे बेटी. मेरी गलत सोच का दंड पूरे राज्य को भुगतना पड़ा है. महाराज इस दुःख में पागल हो गए. उनके बाद छोटे महाराज ने सिंहासन संभाला. लेकिन वे सेनापति की चाल को समझने में नाकाम रहे. उसने उन्हें बुरी आदतों की ओर ढकेल दिया और खुद राज्य का कर्ता-धर्ता बन बैठा. शराब और नशे की लत ने छोटे महाराज का सीना छलनी कर दिया था. परिवार का कोई बुजुर्ग साथ होता तो समझाता. छोटे महाराज के व्यसन ही उनके दुश्मन बने हुए हैं...’
हम यहां राज्य संभालने नहीं आई हैं...’ राजकुमारी ने कहा. ‘राज्य पर अगर किसी का अधिकार है तो इन बालसंन्यासी का, जिन्होंने हम चारों को नया जीवनदान दिया है.’
मैं तो अपने दोस्तों के साथ ही भला. कई दिनों से गिल्ली-डंडा भी नहीं खेल पाया. मां ने मुझे इस काम में जोत दिया. अब जाता हूं. मेरे दोस्त मुझे तलाश रहे होंगे.’ कहते हुए उस लड़के ने सिर का चोगा और गेरुए वस्त्र उतार फेंके. सब हैरान रह गए. लेकिन तभी वह बूढ़ा खड़ा होकर कहने लगा—‘तुम हमारे लिए नई उम्मीद लेकर आए हो बेटे. इसलिए तुम चाहे जो भी हो, इन वस्त्रों को पहने रहो. और आप सबसे बड़ी राजकुमारी से मैं प्रार्थना करूंगा कि अपने पिता की विरासत को संभालें.’
काका, इस बीच वक्त काफी आगे निकल चुका है. हम जानती हैं...वे दिन अब नहीं रहे जब राजा ऊपर से थोप दिये जाते थे. नए जमाने में तो जनता जिसको चाहे, उसी को ताज पहनाए. और जब तक प्रजा पसंद करे, तब तक वह राजा रहे. हम तो प्रजा के साथ हैं.’ बड़ी राजकुमारी ने कहा. इसपर सभा में सन्नाटा व्याप गया. लोग समझ ही नहीं पाए कि राजकुमारी का मंतव्य क्या है. और थोड़ी देर बाद जब लोगों की समझ में आया तो तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूंजने लगा. मौका देखकर छबीला ने अपना इकतारा संभाला और और अपने घर की ओर निकल पड़ा.
कुछ दूर जाकर उसने पीछे मुड़कर देखा. सहसा वह चौंक पड़ा. चारों राजकुमारियां उसके पीछे-पीछे चली आ रही थीं.
तुम कहां जा रही हो. तुम्हारे भाई का तो बहुत बड़ा महल है?’
इतने दिन खुली हवा में रहकर हम वैसे ही वातावरण में रहने की अभ्यस्त हो चुकी हैं. महल का बंद माहौल हमें रास नहीं आएगा.’
तो कहां जाओगी...?’
तुम्हारे साथ...तुम्हारे घर.’
परंतु अपने घर मैं तो अकेला हूं. मेरी आयू भी बहुत कम है. तुम्हारे साथ खेल भी नहीं सकता.’ छबीला के चेहरे पर उसकी स्वाभाविक मुस्कान थिरकने लगी.
ठीक है, तुम हममें से सबसे छोटी बहन को साथ रख लेना. वह तो तुम्हारी ही उम्र की है.’
और बाकी तीनों?’
उनके लिए राजकुमार मैं ढूंढ दूंगी...’ पीछे से आवाज आई. पांचों ने गर्दन उसी ओर मुड़ गई. वह छबीला की मां थी. छबीला दौड़कर अपनी मां से लिपट गया—
मां, सच कहना, तुमने जो सिखाया था, मैंने वह ढंग से किया ना?’
हां, मेरे राजकुमार!’ कहते हुए मां ने उसे छाती से चिपका लिया.
 
                                        ओमप्रकाश कश्यप

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