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बुधवार, अगस्त 22, 2012

बस्ती का बेटा

बदरू ने जब से होश संभाला तभी से खुद को पहाड़ों के बीच पाया था. छह वर्ष का भी नहीं हुआ था जब माता-पिता ने साथ छोड़ा था. वे बकरियां चराते थे. मां पूरब टोले से आती थी, पिता पश्चिम की बस्ती से. पहाड़ियों के बीच दोनों में प्यार हुआ. जिससे उसे संसार में आने का अवसर मिला. विवाह के बाद दोनों ने अपने-अपने टोले से नाता तोड़ लिया. पहाड़ी को ठिकाना बना, एक झोपड़ी में वे रहने लगे. उस वर्ष खूब बरसात हुई थी. पहाड़ियां इतनी चिकना गई थीं कि पांव टिकाना मुश्किल. भेड़ों को घाटी तक ले जाने के लिए चोटियों के बीच से गुजरना पड़ता. रास्ते ऐसे खतरनाक कि पांव फिसलते पता न चले. पर इससे भेड़ों को तो भूखा रखा नहीं जा सकता था. इसलिए सूरज निकलते ही दोनों भेड़ों का बाड़ा खोल देते. डंडा उठाकर मां भी उसके साथ हो लेती. दोनों पहाड़ की गोदी में पले थे. वहां के खतरों से परिचित. परंतु उस वर्ष गजब हुआ. एक दिन संकरी पहाड़ी पर भेड़ फिसली. उसे बचाने के फेर में पहले मां का पांव फिसला. मौत को सामने देख भेड़ बुरी तरह मिमिया रही थी. उससे बाकी भेड़ों में घबराहट फैल गई. रेले की तरह उनका दबाव अकस्मात पीछे से आया तो मां को बचाने के लिए झुके पिता खुद को संभाल न सके. पहाड़ की दो जिंदगियां पहाड़ में समा गईं.
बदरू अपनी नानी के साथ रह गया. बुढ़िया पूरब के टोले से आई थी. मां-बेटों द्वारा की जा रही उपेक्षा और अत्याचार से तंग होकर वह उनके परिवार में आ मिली थी. बदरू उसे नानी कहने लगा. माता-पिता के बाद नानी ने भेड़ों की जिम्मेदारी संभाली तो पिता का छोड़ा हुआ डंडा लेकर वह भी साथ चलने लगा. नानी अनुभवी थी. कुछ महीनों में ही उसने पहाड़ की हर चोटी, फल-फूलों और वनस्पतियों से परचा दिया. किसी वनस्पति को देख बदरू के कदम ठिठक जाते तो नानी समझाती
ये पेड़-पौधे जिंदगी का सुरक्षा-कवच हैं.’
सुरक्षा-कवच माने?’
हमारी रक्षा करने वाले. हमें भूख और बीमारियों से बचाने वाले.’
नानी की बातों से बदरू को रस आता. पर नानी तो नानी! अनुभव तिजोरी खोलती तो ज्ञान की बातें एक के बाद एक निकलती ही जातीं.
आदमी नादान ठहरा, कभी बीमारी, कभी चोट-फेंट खा ही जाता है. तब ये वनस्पतियां ही संकट से उबारती हैं.’
मां की तरह....वह भी तो मुझे कोई कष्ट नहीं होने देती थी.’ बदरू मां की यादों में खो जाता. अनुभवी नानी फौरन उसको उबार लेती
यह धरती भी तो मां ही है. हम सबकी मां. यहां सुखी रखने का एक ही रास्ता है. अपने परिवार का दायरा बढ़ाते जाओ. फिर उसे इतना बड़ा कर दो कि पूरी दुनिया मां-समान लगने लगे.’ बदरू भाव-विह्वल होकर नानी से लिपट जाता.
इतनी अच्छी-अच्छी बातें कहां से लाती हो नानी?’
जिंदगी खुद सिखा देती है बेटा. मैं भी पहले कहां जानती थी. पूरी जिंदगी एक छोटे-से परिवार के बीच बिता दी. उसी को पूरी दुनिया समझे रही. उसी के लिए मरी-कटी. जब अपनी ही औलाद ने आंख दिखाना शुरू किया तो पता चला कि बड़ी दुनिया को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट देने का क्या अंजाम होता है. अच्छा ही हुआ. झटका लगा और उस छोटे परिवार को छोड़कर बड़े में चली आई.’
बड़ा परिवार, पर हम तो केवल दो हैं! क्या तुम इन भेड़ों को भी परिवार का हिस्सा मानती हो?’
वे तो ये हैं ही.’ नानी हंस पड़ी—‘पर मेरा परिवार यहीं तक सीमित नहीं है. वह जहां तक निगाह जाए, वहां तक फैला हुआ है. काश! कोई ऐसी बड़ी-सी रसोई होती, जिसमें सबका खाना एक साथ बन जाता.’ नानी भावुक हो जाती. ऐसे क्षण अकसर, कभी-कभी तो रोज ही आते. इस कारण बदरू नानी को ‘पगला नानी’ कहने लगा था. घर से बाहर, भेड़ों के साथ, हरियाली पहाड़ियों, ठंडी छांव, नर्म धूप, झरनों, घाटियों के बीच बदरू और उसकी नानी की बातें ऐसे ही चलती रहीं. पांच साल और गुजरे. बदरू बालक से किशोर बन गया.
पगला नानी जब अपने बेटों का घर छोड़कर निकली थी, तब भी बूढ़ी थी. बहू-बेटों का घर छोड़ने के बाद जिंदगी खुशनुमा बनी रही, पर बुढ़ापे को कोई न रोक सका. जिन पहाड़ियों पर कभी लपककर चढ़ जाया करती थी, उनपर लाठी टिकाकर चलना भी कठिन हो गया.
तुम्हें कहीं जाने की जरूरत ही क्या हैं....मैं जो हूं. ये तो पचास भेड़ हैं. पांच सौ हों तो भी मैं अकेला चराकर वापस ला सकता हूं.’ बदरू ने तसल्ली दी.
तुझपर भरोसा है बेटा....पूरा भरोसा, लेकिन....’ कहते-कहते नानी चुप हो गई. कुछ दिनों से वह मिलिट्री की गाड़ियों की आवाज सुन रही थी. तोप और टैंकों की आवाज से आसमान गड़गड़ाने लगा था. रात-दिन हवाई जहाज चक्कर काटते रहते. पूरे इलाके में घबराहट फैली थी.
नानी, क्या सोचने लगी?’
खबर मिली है कि पश्चिमी पहाड़ियों पर पड़ोसी देश ने अपने सैनिक बिठा दिए हैं. उन्हें खदेड़ने के लिए हमारी फौज भी मोर्चे की ओर बढ़ रही है.’
इन पहाड़ियों में ऐसा क्या है? जिसपर पड़ोसी देश की आंखें लगी हैं?’
निखालिस हवस है बेटा....’ बदरू पगला नानी की आंखों समायी नफरत को देखता रहा. वह कहती गई—‘यह दुनिया दो तरह के लोगों से बनी है बेटा. एक वे जो अपने, अपने परिवार, पड़ोसियों और रिश्तेदारों के लिए जीते हैं. वे बस शांति चाहते हैं. अति की सीमा तक शांति. दूसरे लोग वे हैं जिनके लिए धरती केवल जायदाद है. वे इसके अधिक से अधिक हिस्से को कब्जाने में लगे रहते हैं. वे दूसरों के खून-पसीने की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं. ऊपर से कभी धर्म, कभी जाति के नाम पर लोगों को लड़ाते हैं, तो कभी देशभक्ति के नाम पर सौदेबाजी करने लग जाते हैं. उनकी अपनी देशभक्ति किसी भी तरह सत्ता हथियाने तक सीमित होती है.’
कई बार बदरू को नानी की बातें समझ नहीं आतीं—‘फिर भी नानी! भेड़ों को भूखा तो नहीं रखा जा सकता!’
मैंने बस्ती में बात की है. एक आदमी केवल दो भेड़ के बदले इन सबको छह महीने तक चराने को तैयार है. मैंने तो ‘हां’ कह दी है. कल सुबह वही लेने आएगा.’
अगले दिन पता चला कि जिस घाटी को लोग चरागाह के रूप में इस्तेमाल करते थे, उसपर फौज ने डेरा डाल दिया है. मानो पूरी छावनी बिछ गई हो. अब जानवरों को उधर ले जाना मुश्किल होगा.’ इस खबर के साथ ही जिस आदमी ने भेड़ों को चरा लाने आश्वासन लिया था, वह मुकर गया.
पूरब टोला के चरवाहे जानवरों को लेकर उत्तर दिशा में जाते हैं. कल से मैं भी भेड़ों को उधर चराने जाऊंगा.’ बदरू ने कहा.
फौज ने ऐलान कर दिया है कि उस ओर कोई न जाए....खतरा है.’
जब इतने गांव वाले जा रहे हैं तो अकेले मेरे न जाने से क्या फर्क पड़ता है.’ बदरू ने कहा. पगला नानी ने भेड़ों को देखा. भरपेट चारा न मिलने के कारण वे उदास थीं. भूख के कारण वे एक स्थान पर सिमटी हुईं. पगला नानी की आंखें नम हो आईं.
इन्हें छोड़ देते हैं....जहां मन होगा निकल जाएंगी.’
ऐसे कैसे छोड़ दें.’ बदरू ने विरोध किया. नानी चुप. कुछ देर चुप्पी बनी रही. सोने से पहले बदरू फैसला कर चुका था. अगले दिन से उसने भेड़ों को पहाड़ियों पर चराना शुरू कर दिया.
नानी से अलग रहकर भी बदरू को काफी सीखने को मिला. कुछ ऐसी बातें भी जिन्हें नानी के साथ रहकर शायद ही सीख पाता. साथी चरवाहों ने पहले ही दिन बता दिया था कि पहाडी़ पर सावधानी बरतने की जरूरत है. चोटी के दोनों और सैनिक हैं. वे चरवाहों पर गोली नहीं चलाते. पर शक होने पर कब ट्रिगर दबा दें, भरोसा नहीं. बदरू साथियों में सबसे छोटा था. इसलिए बड़ों का कहा चुपचाप मान लिया था. पर मानना अपने बस है. अमल होना हालात पर. और हुआ भी वह जो किसी ने सोचा तक न था. चोटी पर चर रही चार भेड़ उसके दूसरी ओर उतरती चली गईं. बदरू ने अपनी भेड़ों पर निशान लगा रखे थे. गायब भेड़ों में से तीन उसकी थीं. बदरू उन्हें वापस लाने के लिए उद्यत हो उठा. साथियों ने समझाया. आवाज देकर रुक जाने को कहा. पर वह माना नहीं. हिरन की तरह कुलांचे भरता पहाड़ी के उस पार दौड़ता चला गया.
उस चट्टान के पीछे एक और चट्टान थी. उससे कम ऊंची. दो भेड़ उस पहाड़ी पर भटकती हुई मिल गईं. बदरू का हौसला बढ़ा. उन्हें बस्ती की दिशा में हांका लगाकर बाकी की खोज के लिए उसने इधर-उधर देखा. वह परेशान था. यह सोचकर कि घर लौटने में देर हुई तो नानी को दुख होगा. उस समय उसको पिता की बात याद आ रही थी. उसे समझाते के लिए एक दिन उन्होंने कहा था—
अच्छे चरवाहे की पहचान है कि वह रेगिस्तान में भी भेड़ों अघाया रखे. न तो वे भूखी रहें, न उनकी संख्या ही कम हो.’
बदरू खुद को अच्छा चरवाहा मानता था. यह हैसियत किसी दूसरे ने नहीं बताई थी. उसे बस लगता था कि उसके माता-पिता दोनों अच्छे चरवाहे थे. इसलिए उनका यह गुण उसमें भी है.
सहसा झाड़ी के पीछे आहट हुई. लगा कि कोई फिसला हो. जरूर कोई भेड़ झाड़ी में फंसी है. वह तेजी से उसी दिशा में दौड़ पड़ा. दौड़ते-दौड़ते उसकी सांस फूलने लगी. नानी ठीक ही कहती है कि पहाड़ बहुत धैर्यवान होते हैं. हवा की चपलता से दूर. वे न तो दौड़-भाग करते हैं, न दौड़-भाग करना पसंद ही करते हैं.
ए लड़के....वहीं रुक, नहीं तो गोली मार दूंगा.’ आवाज आई. बदरू के कदम ठिठके. बोली अनजानी थी.
मैं अपनी भेड़ों की तलाश में आया हूं.’ हिम्मत बटोरकर उसने कहा.
कोई फायदा नहीं है!’
क्या तुमने मेरी भेड़ देखी हैं?’
देखी ही नहीं, बांधकर रखी हैं. कल सुबह दावत के काम आएंगी.’ वह बेशर्मी दिखाते हुए हंस पड़ा. उसकी आवाज से बदरू को नफरत होने लगी.
तुम इस देश के तो नहीं लगते?’
ठीक समझा. पर अब हम जहां है, वह जगह हमारे कब्जे में हैं.’
क्या तुम सरकार हो?’
मैं तो बस एक सैनिक हूं.’
इस देश में घुसपैठ करने का निर्णय तुमने लिया था?’
फैसला सरकार का था. मैं तो उसका वफादार हूं....’
तुम जो ऊंची चोटी देख रहे हो न! मैं वहीं से आ रहा हूं. वहां हमारा एक भी सैनिक नहीं है. चलो आगे बढ़कर कब्जा कर लो.’
इसका हुक्म नहीं है....’
क्यों? तुम तो अपनी सरकार के वफादार सैनिक हो. सरकार इस क्षेत्र पर कब्जा करना चाहती है. तुम्हें उसकी इच्छा पूरी करनी चाहिए.’
कहा न, अभी आदेश नहीं है.’
तुम खुद को सरकार का वफादार मानते हो. अच्छी बात है. पर क्या सरकार भी तुम्हारे प्रति उतनी ही वफादार है?’
ऐसा ही दावा क्या तू अपने बारे में कर सकता है?’
बिलकुल! नानी कहती है कि हम अपनी सरकार खुद चुनते हैं. वह हमारी सरकार है. इसलिए उम्मीद करते हैं वह भी हमारे प्रति वफादार होगी.’ जैसे किसी ने सीधे दिल पर वार किया हो. फौजी सुनते ही तिलमिला उठा—
चुप बदजुबान, बहुत बक-बक करता है.’ उसे गुस्से में देख चार-पांच सैनिक जो वहीं कहीं छिपे थे, बाहर निकल आए.
धीरे बोल दिलावर? दुश्मन हमें आवाज से पहचान सकता है.’
मैंने इसको बालक समझकर छोड़ दिया. अब यह बकवास किए जा रहा है.’
आप मेरी भेड़ लौटा दीजिए....मैं चला जाऊंगा.’ बदरू बोला. दिलावर के पास खड़ा सैनिक उसको देखने लगा, बोला—‘लड़का बहादुर और जहीन है. पीछे से मदद जल्दी नहीं आने वाली. तब तक हम इससे काम ले सकते हैं.’ उसके बाद वह बदरू की ओर मुड़ा.
तुम्हारे घर में और कौन है?’
मेरी नानी....’
हम तुम्हें भेड़ों की चार गुनी कीमत देंगे. बदले में हमारा एक काम करना होगा.’
कैसा काम?’
पहाड़ी के उस पार जो फौज पड़ी है, उसके बारे में पता लगाना है....’
उस ओर तो हमारे देश की फौज है!’
हम तुमसे उनके हथियार थोड़े ही मांग रहे हैं. बस गिनती बताओ और ईनाम लो.’ बदरू चुप.
क्या सोच रहा है? जो हम चाहते हैं, वह तो हम किसी न किसी तरह पता लगा ही लेंगे. हमारे पास जासूसों की कमी नहीं है. तुम यह काम करोगे तो हम तुम्हें मालामाल कर देंगे.’
मुझे सिर्फ अपनी भेड़ चाहिए.’
सोच लो....तुम्हारे पास धन होगा तो शहर ले जाकर अपनी नानी का इलाज भी करा लोगे.’
मेरे साथ दूसरे चरवाहे भी थे. मेरे गायब होने की खबर पल-भर में चारों ओर फैल जाएगी. जब उन्हें पता चलेगा कि मैं पहाड़ी के इस पार आया हूं तो वे मुझपर शक किए बिना न रहेंगे.’
तुम तो निहायत जहीन बालक हो....अच्छा तुम्हीं बताओ, इस काम को कैसे अंजाम दोगे?’
हम उनको चकमा देंगे.’ कुछ देर सोचने के बाद वह बोला—‘मैं अगले सप्ताह हर रोज इस पहाड़ी पर आऊंगा. भेड़ों के साथ पूरे दिन यहीं रहूंगा. उस समय मुमकिन है दूसरे चरवाहे भी मेरे साथ हों. इसलिए आप मुझसे मिलने की कोशिश मत करना. न ही ऐसा कुछ करना जिससे पता चले कि आप यहां हैं. कोई जरूरी बात हुई तो उस पत्थर के नीचे कागज पर लिखकर चला जाऊंगा. हमारे जाते ही आप निकाल लेना. मौंका मिला तो मैं आपसे मिल भी लूंगा.’
कोई चालाकी मत दिखाना, वरना....’ दिलावर ने धमकी दी.
दुनिया में मेरा कोई नहीं है, सिवाय नानी के....कहो तो उसको तुम्हारे पास छोड़ दूं.’
कोई जरूरत नहीं है.’ दिलावर ने कहा, ‘तुम अपना नफा-नुकसान तुम अच्छी तरह समझते होगे.’
इधर आने की बात सुनकर हो सकता है उधर के फौजी तुमसे पूछताछ करें....उनसे कैसे निपटोगे?’
मैं तो चाहता हूं कि वे ऐसा करें....इससे मुझे उनकी छावनी में जाने का मौका मिलेगा. वहां मैं आपके लिए सूचना जल्दी से जल्दी जुटा सकूंगा. रही बात उनके सवालों की तो मैं कहूंगा कि भेड़ खोजने गया था....बस!’



बदरू वहां से लौट आया. सुरक्षित लौटने का उसको संतोष होना चाहिए था. परंतु मन कहीं और लगा था. समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे....पैसा हाथ में होगा तो शहर जाकर नानी की आंखों का आॅपरेशन करा दूंगा. उसके बाद वह मजे से चल-फिर सकेगी. इस विचार के साथ वह अपने दिल को हल्का महसूस करने लगा. उसी रात सोने से पहले उसने नानी से पूछा—
नानी यहां से शहर कितनी दूर है....’
मैं तो कभी वहां गई नहीं. सुना है चार घंटे पहाड़ से उतरने के बाद बस मिलती है. जो अगले आठ-नौ घंटे में शहर पहुंचा देती है.’
फिर तो ठीक है....अस्पताल में इलाज के बाद तो तुम पहले जैसी हो जाओगी न!’
मेरी चिंता क्यों करता है? बहुत जी चुकी. तू अपना सोच. यहां के सैकड़ों लड़के शहर में कमाई कर रहे हैं. वहां जाकर तू भी कोई काम-धंधा देख लेना.’ नानी चाहती थी बदरू किसी सुरक्षित ठिकाने पर चला जाए.
चला जाऊंगा नानी, पहले तुम्हारा इलाज तो हो जाए.’ उसने कहा और नानी से लिपट गया.



आठवें दिन जो घटा उसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी. जो हुआ एकदम अनहोनी जैसा था. उस दिन पौ फटने से पहले ही पूरा इलाका धुंए और शोर से थर्रा उठा. आसमान पर युद्धक विमानों की हुंकार और नीचे घाटी में सेना के ट्रकों और गाड़ियों की गड़गड़ाहट. लोगों की सांसें थम गईं. लेकिन उसी दिन शाम ढलते-ढलते चारों और सन्नाटा था. हवा में अजीब-सा उल्लास भरा था. विमान वापस अपनी बैरकों में जा चुके थे. सेना के ट्रक और गाड़ियां लौटने लगे थे. सैनिकों के उल्लास से लग रहा था कि उन्हें भरपूर कामयाबी मिली है. लोग घरों से निकलकर खुली हवा का आनंद ले रहे थे.
उस समय बदरू अपनी नानी से चिपका पड़ा था—
नानी, अब मैं तुम्हें इलाज के लिए शहर न ले जा सकूंगा....’ बदरू की आवाज में पीड़ा थी, चेहरे पर संतोष का उजियारा.
मुझे हुआ क्या है पुत्तर....भली-चंगी तो हूं.’ नानी बोली. पर बदरू ने बात जैसे अनसुनी कर दी. वह कहता गया—
उन्होंने मुझे ढेर सारे रुपये दिए थे. वे सब मैंने वहीं पहाड़ियों पर फेंक दिए....’
आज बस्ती में चारों ओर तेरी ही चर्चा है. जिसे देखो वही तेरी तारीफ के पुल बांध रहा है. सुना है सरकार तुझे ईनाम भी देगी. कुछ मुझे भी तो बता. तूने ऐसा क्या कर दिया?’ नानी ने पूछा. बदरू की आंखों में बीते दिनों की एक-एक घटना मानो साकार हो उठी—
वो घुसपैठिया दिलावर, मूरख समझता था मुझे. कहता था कि मैं अपनी सेना की गोपनीय जानकारियां उसको ला दूं.’
वह तो तू पहले भी बता चुका है....आगे क्या हुआ?’ नानी ने कौतूहल प्रकट किया.
मेरे पहाड़ी के उस ओर जाने की खबर हमारी सेना तक पहुंच चुकी थी. अगले दिन मुझे एक अधिकारी ने बुलाया. मैंने उन्हें सबकुछ सच-सच बता दिया. उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई. फिर मुझे कुछ जरूरी बातें समझायीं. उसके बाद जैसा वह कहते गए, मैं करता गया.’
तूने उन्हें विश्वास कैसे दिलाया.’
मैंने उन्हें सात दिन तक सामने न आने को कहा था. इस बीच मैं रोज वहां पहुंचता. हर बार जैसा मुझसे कहा जाता, वैसा ही करता. कभी-कभी पत्थर के नीचे एक पर्चा रख देता. सातवें दिन मैं उससे मिला तो वह बहुत खुश था—
शाबाश! तूने तो कमाल कर दिया. मैं भी वायदे से पीछे नहीं हटूंगा. यह ले....’ कहकर उसने ढेर सारे करारे नोट मेरी मुट्ठी में भर दिए.’
ये तो बहुत ज्यादा हैं.’
तूने जो खबर दी है, उसके आगे यह कुछ भी नहीं है. एक बार फतह हासिल होने दे. उसके बाद अपने हुक्मरान से कहकर मैं तुझे बहुत बड़ा ईनाम दिलवाऊंगा.’
आपके लिए एक खबर और भी है.’
कैसी खबर....’
फौजें पहाड़ी के उस ओर आ लगी हैं. किसी भी समय हमला हो सकता है.’
हमला! क्या वे लोग हमला करने की जुर्रत करेंगे. पूरी दुनिया-भर की आंखें इधर लगी हैं. युद्ध छिड़ते ही अमेरिका ओर से कमान संभाल लेगा.’ दिलावर बोला. वह बुरी तरह डरा हुआ था.
उनका कहना है कि पहले एक झटके में दुश्मन को अपनी जमीन से खदेड़ दें. बाद में उसके हिमायती से भी निपट लेंगे. हमले के लिए पचास से ऊपर तोप और सैकड़ों छोटी-बड़ी गाड़ियां हैं....’
कितनी फौज होगी?’
सात-आठ सौ तो होंगे.’
उफ्! इतनी जल्दी तो मदद आने से रही.’
तब तो कल यह इलाका आपके हाथ से गया समझो. उधर के लोगों का मानना है कि कल यहां से सारे घुसपैठिये खदेड़ दिए जाएंगे. फौज उसके बाद रुकेगी थोड़े ही. एक-एक कर वह सारी पहाड़ियों को खाली कराती जाएगी.’ सुनकर दिलावर की पेशानी से पसीना टपकने लगा. वह घबराया हुआ भीतर गया. वहां कुछ देर अपने आका से बात कीं. फिर तेज कदमों से बाहर आया.’
तेरी खबर तो पक्की है न!’
आज तक कोई खबर झूठ निकली है....’
उफ! यह नहीं हो सकता. बड़ी मुश्किल से इन पहाड़ियों को कब्जाया है. ऊपर वाले कह रहे हैं कि बस कुछ दिन और हमारा कब्जा बना रहे. उसके बाद ये हमेशा के लिए हमारी हो जाएंगी.’
इंशाअल्लाह....पर आप मुट्ठी-भर सैनिक....उधर भारी-भरकम फौज, कैसे रोक पाएंगे?’
उनका कहना है कि यदि हम इस फौज से निपट लें तो अगली टुकड़ी आने तक चार-पांच दिन मिल जाएंगे. तब तक मुमकिन है कि पीछे से मदद आ जाए....कुछ भी हो. चाहे मुझे पहाड़ियों में छिपे सारे सैनिक बुलाकर मुकाबला करना पड़े, मैं हाथ आए इलाके को हरगिज नहीं जाने दूंगा.’ दिलावर बड़बड़ाया.
इतना बताने के बाद बदरू चुप हो गया. अभी तक कहानी सुनाने का काम नानी करती आई थी. आज उल्टा हो रहा था. बदरू ने किस्सा छेड़ दिया था और नानी कान लगाए सुन रही थी. बदरू चुप हुआ तो उससे रहा नहीं गया, बोली—
आगे बता न!’
उस मूर्ख ने दिलावर ने मुकाबला करने की सनक में अपने सारे फौजी रातों-रात उसी चट्टान पर बुला लिए. उसको भ्रम में डालने के लिए इधर के ट्रक भी पहाड़ी पर चक्कर काटते रहे. सुबह वही हुआ जो सारी दुनिया ने देखा, सुना. रात के अंधेरे में ही हमारे हवाई जहाजों का काफिला पहाड़ी पर टूट पड़ा. दिलावर आमने-सामने की लड़ाई सोचे बैठा था. वह संभलता तब तक हमारे हवाई जहाज उसकी टुकड़ियों को मिटा चुके थे....कितना अच्छा हुआ नानी, इस युद्ध में अपने किसी सैनिक की एक बूंद तक नहीं बही.’
यह कमाल तूने किया बेटा?’
मैंने तो वही किया, जो तूने सिखाया था.’ बदरू नानी से सटता हुआ बोला.
एक बात अब भी अब भी मेरी समझ में नहीं आई, तू ठहरा अनपढ़. फिर पहाड़ी पर पर्चा रखने की बात कैसे सूझी.’
बस मुंह से निकल गया था. इससे मैं भी डरा हुआ था. अच्छा हुआ जो सेना के अधिकारियों ने संभाल लिया. पर नानी अब मैं सचमुच पढ़ना चाहता हूं.’
ठीक है, मैं कल ही तुझे शहर भेजने का इंतजाम करती हूं.’
अब तुम्हें इसकी फिकर करने की कोई जरूरत नहीं है नानी, सरकार खुद संभाल लेगी. तुम्हें शहर बुलाया गया है. वहां इसके पढ़ने का इंतजाम भी हो जाएगा.’ दरवाजे से आवाज आई.
नानी, इनसे कहो न, स्कूल को यहीं ले आएं.’ बदरू ने नानी के गले में बांहें डाल, मनुहार करते हुए कहा.
जरूर, बेटा....जरूर! तुम कहते हो तो स्कूल इस गांव तक खुद चलकर आएगा. आखिर और भी तो बच्चे हैं.’ बस्ती के मुखिया ने चहकते हुए कहा. उस समय तक दर्जनों लोग भीतर आ चुके थे. उनके चेहरों पर चमक थी, मन में उल्लास. सबने मिलकर बदरू को कंधों पर उठा लिया और खुशी से नाचने लगे.

© ओमप्रकाश कश्यप

2 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया कसावदार कथानक बस कहानी थोड़ी लम्बी थी लेकिन निर्बाध प्रवाह लिए थी .पूरी पढ़ी गई इसीलिए .ऐसी ही सौद्देश्य कहानी हमारे वक्त की ज़रुरत हैं .

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  2. कथारस से भरपूर, एक जीवंत दास्‍तान जैसी है कहानी। बधाई।

    .............
    सिर चढ़कर बोला विज्ञान कथा का जादू...

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