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बुधवार, सितंबर 14, 2011

कहानीमहल


[कुछ दिनों पहले तैलंग जी ने फेसबुक पर सर जेम्स बेरी का एक सुभाषित उद्धृत किया था. उसी को केंद्र मानकर यह बालकथा लिखने की कोशिश की है. चूंकि इसके पीछे तैलंगजी की प्रेरणा है, इसलिए यह ससम्मान उन्हीं को समर्पित है. - ओमप्रकाश कश्यप]

नन्ही कहानी अपनी नानी से बोली
नानी कोई कहानी सुना!’
बिना देर किए नानी कहानी सुनाने लगी—
मेरी नानी की नानी के पास ढेरों कहानियां थीं. उन्होंने वे कहानियां अपनी नानी से सौगात में प्राप्त की थीं. उनके पास कहानियों का बहुत बड़ा बक्सा हुआ करता था. पर मेरी नानी की नानी बहुत गुणी और समझदार थीं. उन्होंने नानी से मिली कहानियों को बहुत सहेज-संभालकर रखा. बाद में कुछ कहानियां अपनी ओर से जोड़ती गईं. नानी की नानी जब मरने लगीं तो कहानियों का पिटारा नानी को सौंप गई. मेरी नानी और भी गुणी निकली. अपनी नानी से मिली कहानियों को सहेजने के लिए उसने एक महल बनवाया. नाम रखा—कहानीमहल. उसके बाद सारी कहानियां कहानीमहल में निवास करने लगीं. जो भी कहानीमहल के पास से गुजरता, कहानियों को देखता-सुनता-गुनता. पसंद आने पर कुछ कहानियों को अपने साथ ले जाता. कुछ दूर देश से लाई कहानियां कहानीमहल में छोड़ जाता. धीरे-धीरे कहानीमहल बढ़ता गया. उसमें रहने लायक जगह न बची तो कुछ कहानियां जंगल में रहने लगीं. फिर वहां से आसपास के इलाकों तक आने-जाने लगीं. एक दिन ऐसा आया कि कहानीमहल से निकली कहानियां पूरी दुनिया छा गईं.
नानी कोई नई कहानी सुनाओ.’ नन्ही कहानी झुंझलाई.
वही तो सुनाने जा रही हूं. कहानीमहल में एक दिन एक कहानी आई. दिल की भली. उदार. हमेशा दूसरे की मदद करने को तैयार रहती. हमेशा वही करती जो दूसरों को पसंद आए. दूसरों के काम आना उसको अच्छा लगता. परंतु जब भी दूसरी कहानी को आसपास देखती तो झुंझला पड़ती—
कितनी बेशऊर है....क्या यह कोई काम ढंग से नहीं कर सकती.’
उस कहानी को हमेशा यह गुमान रहता कि काम कोई भी हो, उससे अच्छा कोई दूसरा कर ही नहीं सकता. पर वह सारे काम अकेली तो कर नहीं सकती थी. इसलिए दूसरे को देख-देख झुंझलाती. धीरे-धीरे चिड़चिड़ापन उसके स्वभाव का हिस्सा बन गया. आखिर एक दिन वह बीमार पड़ गई. पर नन्ही कहानी थी सबकी चहेती. उसकी देखभाल करने कई कहानियां आ जुटीं. अब परेशानी और बढ़ी. नन्ही कहानी उनमें से एक भी पसंद न थी. वह बात-बात पर झुंझलाती. आखिर जब डा॓क्टर आए तो उसने साफ-साफ कह दिया—
डा॓क्टर साहब इनसे घर जाने को कहिए...’
‘‘मरीज के पास अधिक तीमारदार रहने भी नहीं चाहिए. पर ये सब तुम्हें बेहद चाहती हैं. मैंने मना किया तो अस्पताल के बाहर बैठ़ गईं. सबकी एक ही रट है’—‘हमारी सबसे प्यारी कहानी बीमार है, उसने संकट में दूसरों की हमेशा मदद की है. अब हमारा कर्तव्य है कि जो भी बन पड़े, उसके लिए करें. कृपया हमें उनके पास रहने दीजिए.’ इतनी सारी कहानियों की फरियाद एकाएक टाली भी तो नहीं जा सकती.’’ डा॓क्टर ने असमर्थता दिखाई.
सारे दिन मुझे घेरकर बैठी रहती हैं, न खाने का शऊर है न पहनने का....मैं पागल हो जाऊंगी.’ नन्ही कहानी झुंझलाई.
ठीक है, मैं जाने को कह दूंगा.’ उसके बाद डा॓क्टर ने कहानी की तीमारदारी में लगी सभी कहानियों को घर भेज दिया. नन्ही कहानी पर दवाइयों का असर न पड़ा. उसकी बीमारी रात-दिन बढ़ती गई.
एक दिन बहुत-ही छोटी कहानी उससे मिलने आई. वह नन्ही कहानी से भी नन्ही थी. सब उसको छुटकी कहानी कहते थे.’
सब तुम्हारी बहुत प्रशंसा करते हैं दीदी.’ छुटकी कहानी ने नन्ही कहानी से कहा.
....मालूम है मुझे. कुछ और?’
मुझे तीन दिन से बुखार था. मां ने घर से बाहर निकलने को मना किया है. पर तुम्हारी बीमारी के बारे में सुना तो रोक नहीं पाई. घरवालों से नजरें बचाकर चली आई हूं.’
अरे, वे सब परेशान होंगे! तुम्हें बताकर आना था.’
मेरे घरवाले बहुत अच्छे हैं. सच जानकर वे नाराज नहीं होंगे. मैं एक नेक काम के लिए घर से निकली हूं. लेकिन....’
लेकिन क्या?’
मैं बहुत छोटी हूं न! मुझे कोई काम अच्छी तरह नहीं आता. मेरी मां जब भी नाराज होती है, मुझे धरती का बोझ कहकर गुस्सा दिखाती है.’
...! तुम तो बहुत प्यारी हो.’ नन्ही कहानी को छुटकी कहानी की सरलता अच्छी लगी.
सोचती हूं, जब तुम अच्छी हो जाओगी तो मैं तुमसे अच्छी-अच्छी बातें सीखूंगी, ताकि मैं भी तुम्हारी तरह सबके दिल को जीत सकूं.’
अपने व्यवहार से छुटकी कहानी ने नन्ही कहानी का दिल मोह लिया. वह अस्पताल में ही नन्ही कहानी के साथ रहने लगी. फिर छुटकी कहानी ने न जाने क्या जादू किया कि नन्ही कहानी उसके प्रत्येक कार्य की खूब प्रशंसा करती. धीरे-धीरे वह स्वस्थ्य होने लगी. डा॓क्टर हैरान थे. कुछ दिनों पहले जिस उपचार से उसका साथ लगातार गिर रहा था, अचानक क्या हुआ कि उसी दवा से एकदम भली-चंगी हो गई. सच जानने के लिए डा॓क्टर व्याकुल थे, पर रहस्य की गुत्थी सुलझ ही नहीं पा रही थी.
इसी बीच डा॓क्टर को नई बात पता चली. नन्ही कहानी की बीमारी से कहानीमहल की सबसे बूढ़ी कहानी बहुत चिंतित थी. उसने ही छुटकी कहानी को नन्ही कहानी की देखभाल करने भेजा था. उन्होंने कहानीमहल जाने का निश्चय कर दिया.
डा॓क्टर जिस समय कहानीमहल पहुंचे बूढ़ी कहानी अनेक कहानियों से घिरी बैठी थी. वे पहले भी बूढ़ी कहानी से मिले चुके थे. बूढ़ी कहानी तो दुनिया के अनेक प्राणियों से कई-कई बार मिल चुकी थी.
आइए डा॓क्टर साहब, आपने अच्छे इलाज से मेरी बिटिया स्वस्थ होकर कहानीमहल वापस लौट आई है. मैं आपकी बहुत-बहुत आभारी हूं.’ बूढ़ी कहानी ने कहा. परंतु डा॓क्टर के मन में तो कुछ और ही चल रहा था. उसी उलझन के कारण उनके चेहरे पर तनाव था. सहसा बूढ़ी कहानी ने बात आगे बढ़ाई—
आपके यहां आने का कारण हममें से किसी से भी छिपा नहीं है. दरअसल शताब्दियों से आदमियों की संगत तथा उनके दिलो-दिमाग के आसपास रहने से हम उनके मन की हलचल को बहुत जल्दी पहचान लेती हैं.’
फिर तो मेरी मुश्किल आसान हो गई. नन्ही कहानी का उपचार मैं महीने-भर से करता आ रहा था. फिर भी उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा था. छुटकी कहानी ने जाते ही न जाने क्या चमत्कार किया कि वही दवाइयां जो पहले बेअसर थीं, एकाएक असर करने लगीं. केवल चार दिन में वह अस्पताल से बाहर निकल आई. आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ?’
ऐसा काम करने में कोई बड़प्पन नहीं है, जिसे हर कोई पसंद करे. बड़ी बात है दूसरे के प्रयास की सच्चे मन से प्रशंसा करना....जो ऐसा करता है, वह अनेक व्याधियों से स्वतः मुक्त हो जाता है.’ बूढ़ी कहानी ने सूत्रारूप में बात कही. सुनकर डा॓क्टर साहब की बुद्धि चकराने लगी—
रात-दिन मरीजों में रहने के कारण मुझे पहेलियां बूझने का अभ्यास नहीं रहा.’
यह पहेली नहीं, हकीकत है.’ सबसे बूढ़ी कहानी ने मुस्कराहट बिखेरते हुए कहा—‘नन्ही कहानी हमेशा उदारतापूर्वक दूसरों की मदद करती आई थी. न जाने कब यह भ्रम उसके दिलो-दिमाग पर सवार हो गया कि इस काम को उससे बेहतर और उतनी ईमानदारी से कोई दूसरा कर ही नहीं सकता. इसलिए जब भी वह दूसरी कहानियों को उपकार की राह पर आगे बढ़ते देखती, झुंझला पड़ती. इसी तनाव में बीमार पड़ गई. छुटकी कहानी के साथ रहते हुए ही सचाई उसकी समझ में आई...’
कैसी सचाई?’
यही कि दूसरे के कर्म की सच्चे मन से प्रशंसा करना ही सच्चा बड़प्पन है.’
जब भी किसी कहानी के पास गया हूं, हमेशा कुछ न कुछ नया सीखने को मिला है. आज फिर वैसा ही अनुभव हुआ. अब मैं चलता हूं.’ डा॓क्टर साहब बोले और तेज कदमों से वापस क्लीनिक की ओर लौट पड़े, जहां मरीज उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे.
ओमप्रकाश कश्यप

शनिवार, सितंबर 03, 2011

सच्चा सुख


बालकहानी

 सुख अगर दुख के बाद आए तो मन को और भला लगता है. उजाले की चमक तब और आकर्षक बन जाती है जब वह अंधेरे की कोख से फूटता है...’ ऐसी ही नेक सलाह बूढ़ा चिराग अपने बेटे को देता रहता था. बहुत लंबी उम्र पाई थी उसने. वर्षों तक वह अंधेरे से अकेला ही जूझा था. इसलिए उसको सीख देने का अधिकार था.
मुझे विश्वास है कि तू मुश्किलों से डरेगा नहीं...उनका डटकर सामना करेगा.’
जी! मैं पूरी कोशिश करूंगा...’ पिता को सम्मान देते हुए नन्हे चिराग ने सीख को गांठ में बांध लिया. बूढ़े चिराग के चेहरे पर संतोष झलकने लगा. उसकी लौ लपलाई— यह बुझने का संकेत था.
किसी के जैसा बनने में कोई बड़प्पन नहीं है. कुछ ऐसा करो कि लोग तुम्हारे निशान ढूंढते फिरें.’ बूढ़े चिराग की यह आखिरी सीख थी. न जाने कौन-सा डर था उसे. कौन-सी आशंका उसे खाए जा रही थी. इसी के साथ उसकी लौ थरथराई. नन्हा चिराग कुछ और कह-सुन पाता, उससे पहले ही वह अनंत पथ की ओर कूंच कर गई.
नन्हा उदास! कुछ देर तक बूढ़े चिराग की ओर ताकता रहा. सूनी-भरी आंखों से...उसका मन टूट रहा था. लगा कि दुनिया ही उजड़ चुकी हो. जन्म से लेकर आज तक वह बूढ़े चिराग के हमेशा साथ रहा था. अकेलापन उसको कचोटने लगा. मन हजार-हजार उलझनों से घिर गया.
बूढ़े चिराग का बुझना, एक तरह से अंधेरे की ही जीत है.’ नन्हे के दिमाग में आया. उस समय वह निराशा में डूबा हुआ था. अनमना-सा...कोई रास्ता उसे सूझ ही नहीं रहा था. बीती रात एक व्यापारी उन्हें लेकर उस जंगल में पहंुचा था. रात को उसने जंगल में पड़ाव डाला. उस सुनसान जंगल में अंधेरे से जूझना नन्हे चिराग के लिए नया अनुभव था. उस समय बूढ़े चिराग की तेज वमकदार रोशनी के आगे अपनी नन्ही-पीली-सी लौ को देख नन्हे चिराग ने अपने जन्मदाता की ओर देखा था.
यह कोई अनोखी बात नहीं है.’ बूढ़े चिराग ने हंसते हुए कहा था. ‘काम यदि आत्मा की गहराई से किया जाए तो उसकी चमक अनोखी ही होती है.’
बूढ़े चिराग की बातों की गहराई को नन्हा चिराग तब कहां समझ सका था. सुबह व्यापारी उन दोनों को जंगल में छोड़कर आगे बढ़ गया. अब जबकि बूढ़ा चिराग अपनी रोशनी के साथ अनजान दिशा की ओर कूंच कर चुका है, नन्हे चिराग को उसकी बातें धीरे-धीरे समझ में आ रही थीं. साथ ही उसको लग रहा था कि वह बूढ़े चिराग जैसा कभी नहीं बन सकता. यही एहसास उसको धीरे-धीरे हताशा की ओर ढकेल रहा था. घनी उदासी और अकेलेपन के बीच अजीबोगरीब विचार उसके दिमाग में उठ रहे थे—
सुना है, जंगल में हाथी भी होते हैं. अच्छा हो कि भारी-भरकम हाथी आकर मुझे चूर-चूर करता हुआ आगे बढ़ जाए.’ ऊपर पेड़ पर पक्षियों के चहचहाने की आवाज आई तो उसका भी ध्यान उस ओर गया. बूढ़े चिराग की बात सहसा उसे ध्यान आ गई. बीती रात पक्षियों का मिठास भरा कलरव सुनकर बात को सूत्रा रूप में कहने वाले बूढ़े चिराग ने कहा था—
जो सबके मंगल की कामना करते हैं, प्रकृति उनके स्वर में अनूठी मिठास भर ही देती है.’ नन्हा तब बात के मर्म को जानने के बजाए पक्षियों के गान में डूबा रहा था.
यादों में खोए नन्हे की निगाह अचानक ऊपर बैठे एक कौए पर पड़ी जो उड़ने को तैयार था‘मुझ पर दया करो...मैं इस दुनिया से ऊब चुका हूं. थोड़ी दूर एक नदी है. तुम मुझे उसी में ले जाकर फेंक दो. मैं उसकी अतल गहराई में समा जाना चाहता हूं.’
कौआ उसकी ओर ध्यान दिए बिना ही उड़ गया. नन्हे का मन अवसाद से घिर गया. निराशा फिर उसे घेरने लगी. ‘यह बंदर भी मुझे मुक्ति दे सकता है...’ बंदर को आते देख नन्हे ने सोचा—
बंदर मामा मुझपर एक एहसान करोगे?’
जो तुम चाहते हो मैं वह तो कर नहीं सकता. हां, दो-चार दिनों तक इसी तरह पड़े रहोगे तो धूल-मिट्टी खुद आकर तुम्हें पाट देगी.’
इतना लंबा अंत मैं नहीं चाहता.’
मेरे लिए तो यह एक खेल है. पर बूढ़ा चिराग तुमसे बहुत उम्मीदें पाले था. अगर उसकी बातें न सुनी होतीं तो यही करता.’
उन्होंने तो अपना जीवन मजे सेे गुजार दिया...धनी व्यापारी के यहां...जब चारों तरफ सुख बिखरा पड़ा हो तो इसी तरह की बड़ी-बड़ी बातें सूझती हैं.’ नन्हे चिराग के मुह से ऐसी बातें सुनकर बंदर को हैरानी हुई. नन्हे का मन भी अशांत था. बेचैनी उसको भीतर ही भीतर मथ रही थी. कुछ देर पश्चात वह अपने आप बोला—
माफ करना...परेशानी में मैं न जाने क्या-क्या बक गया. पर क्या करूं....बूढ़े चिराग के अचानक उठ जाने के बाद मैं बहुत दुखी हूं...’
बंदर ने एक पल के लिए सोचा. फिर एक नजर नन्हे पर डाली. उसकी गर्दन लटकी हुई थी. बंदर मुस्कराया, बोला—
छोड़ो यह सब! मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं.’
और नन्हे चिराग की ओर ध्यान दिए बिना ही उसने कहना शुरू कर दिया—
चांद-सितारे-धरती-आकाश...एक-ना-एक दिन मिटना तो सभी को है. पर दुनिया, इसमें चाहे लाख बुराइयां सही....यहां जो दूसरो के भले की सोचते हैं...उनके भले के लिए तन-मन-धन से काम करते हैं...उन्हें यह हमेशा याद रखती है. ऐसी ही एक कभी न भूलने वाली कहानी मैं तुम्हें सुनाने जा रहा हूं—
अठारवीं शताब्दी करीब तीन-चौथाई बीत चुकी थी! एक लड़का अपनी मां के पास बैठा था—उदास और अनमना! केवल आठ साल की अवस्था. उसकी एक आंख बचपन में ही चेचक की भेंट चढ़ चुकी थी. एक पैर पोलियो ने दबा दिया था. इंग्लैंड, जहां की यह कहानी है; वहां चेचक महामारी के रूप में अक्सर आती रहती थी. हर साल वह हजारों बच्चों को अपाहिज-अनाथ बना जाती थी. उन दिनों भी गांव में चेचक फैली हुई थी. मां चाहती थी कि उसका बेटा उस जानलेवा बीमारी की चपेट से बचा रहे. मगर बेटे को उदास और अनमना देखकर वह घबरा गई...
तुम्हारी तबियत तो ठीक है बेटा?’ मां ने पूछा था. बेटे की पीठ पर हाथ फिराते हुए. बेटा कुछ बोला नहीं. बस गुमसुम बैठा रहा. मां ने कलाई थामकर जांचा. शरीर का तापमान सामान्य था. फिर अचानक ही उसको याद आया, स्कूल में बच्चे उसको तंग करते रहते हैं.
क्या आज फिर तुम्हारे साथ किसी ने बदतमीजी की है?’
इसमें उनका क्या दोष!’ प्यार और सहानुभूति पाकर बेटा खुलने लगा— ‘एक आंख बंद होने का मतलब ही है दुनिया की आधी रोशनी का छिन जाना.’
ऐसा कहा उन्होंने...शैतान लड़के...मैं कल ही स्कूल में जाकर उनकी शिकायत करूंगी.’ मां ने गुस्से में कहा...अगले ही क्षण उसको अपने कर्तव्य का ध्यान आया. अतएव धीरे-धीरे सामान्य होती हुई बोली—
बेटा, अपनी बातों से उन्होंने दिखा दिया कि वे अव्वल दर्जे के मूर्ख हैं. आंखों से देखना और आंखें खुली रखना दोनों अलग-अलग बात हैं. तुम्हारे दोस्तों की बातों से लगता है कि वे चीजों को देखते-भर हैं.’
कैसे मां?’ बेटा उलझन में पड़ गया.
बेटे ज्ञान तो दुनिया के कण-कण में समाया हुआ है. उसे समझने के लिए बड़ी मेहनत और लगन की जरूरत पड़ती है. दिमाग के कपाट खुले रखने पड़ते हैं. हम सामान्य लोगों की आंखें तो उतना भी नहीं देख पातीं जितना कि नदी किनारे पड़े रेत का मामूली कण.’
मां, स्कूल की पढ़ाई में अब मेरा मन नहीं लगता. ’ लड़के ने बताया.
फिर क्या करना चाहता है?’
मैं डा॓क्टर एडवार्ड जेनर के पास जाना चाहता हूं.....’ बेटे ने कहा तो मां घबरा गई. चेहरा फक् पड़ गया. दिमाग में चेचक से जूझते, रोते-कराहते अनगिनत रोगी और उनके बीच मोटा ओवरकोट पहने घूमता हुआ, एक लंबा-सा आदमी कौंध गया. जो खुद भी कई बार चेचक की चपेट में आ चुका था. पूरा इंग्लैंड उन दिनों चेचक की चपेट में था. चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी. डा॓. जेनर चेचक की दवा बनाना चाहते थे.
चेचक की दवा....कभी अनहोनी भी संभव हुई है?’ नासमझ और नाकारा लोग डा॓क्टर जेनर का मजाक उड़ाते.
मतलब?’
क्योंकि चेचक निरा रोग ही नहीं है. वह तो कुदरत द्वारा इंसान को दी गई उसके बुरे कामों की सजा है.’
प्रकृति इतनी कठोर नहीं है कि गरीब-मासूमों को मौत के हाथों में सौंप कर निश्चिंत हो जाए.’ सचाई को समझने वाले कुछ लोग रूढिवादियों को समझाने की कोशिश करते. परंतु सब बेकार....लोग जेनर को रात-दिन बीमारों की सेवा करते, मौत से जूझते हुए देखते. कभी-कभी वे उनकी मेहनत और लगन की सराहना भी करते. किंतु दूर से ही. छूत के डर से वे हमेशा उनसे बचे-बचे रहते थे.
मां, क्या सोचने लगीं?’
कुछ नहीं बेटा. तू अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे बस.’ मां ने टालने की कोशिश की. पर बेटे के दिमाग पर तो कुछ और ही छाया हुआ था...
मां अपने प्रयोगों से डा॓. जेनर ने पता लगाया है कि जिन्हें काऊपा॓क्स (छोटी चेचक) हो जाती है, उन्हें बड़ी चेचक(शीतला) की बीमारी नहीं होती.’
मैं सुन चुकी हूं बेटे....’ मां ने उदासीनता दिखाई. मगर उत्साह से भरा हुआ बेटा बोला...
अपनी खोजों को आधार मानकर वे प्रयोगों में जुटे हैं. मां, पहली बार उन्हें यह जानकारी एक ग्वालिन ने दी थी. बात सन 1766 की है; जब वे लंदन के एक सर्जन डा॓. हंटर के सानिध्य में रहकर अपनी डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे थे. उन दिनों एक ग्वालिन अपने इलाज के लिए डा॓. हंटर के कमरे में आई. बातों-बातों में उस ग्वालिन ने दावा किया कि उसको शीतला की बीमारी नहीं हो सकती. क्योंकि उसको काऊपाॅक्स हो चुकी है. डा॓. जेनर ने उसकी बात को बड़े ध्यान से सुना. बाद में जब वे अपने गांव बर्कले गए तो बाकी लोगों ने भी ग्वालिन की बात का समर्थन किया. बस तभी से वे बड़ी चेचक का टीका बनाने में जुटे हैं. जानती है मां...एक बार उन्होंने क्या किया. एक रोगी को चेचक निकली हुई थी. डा॓. जेनर ने उसके घावों से गंदा खून लेकर एक स्वस्थ लड़के के शरीर में प्रवेश करा दिया. थोड़े ही दिन के बाद उस लड़के को छोटी चेचक ने घेर लिया. डाॅ. जेनर ने उसका इलाज किया. ठीक हो जाने के बाद उन्होंने शीतला के रोगी के शरीर से गंदा खून लेकर उसके शरीर में चढ़ाया. जिसका उस लड़के पर कोई असर नहीं हुआ. इसका मतलब है मां कि शीतला जैसी महामारी का इलाज छोटी चेचक के भीतर ही छिपा है.’
मां हैरान होकर सुन रही थी. अभी तक जिस बेटे को वह छोटा और नादान समझती आई थी; वह बुद्धिमानी से भरी बड़ी-बड़ी बातें कर रहा था.
तूने यह सब कैसे जाना बेटा?’
और लो इसमें कौन-सी मुश्किल है. आजकल तो जिधर देखो उधर इसी बात की चर्चा है.’ उत्साहित बेटे ने मां को बताया. मां जान-बूझकर मौन बनी रही. पर बेटे ने चुप्पी को एक पल भी खिसकने नहीं दिया. फौरन बोला— ‘मां, डा॓. साहब को ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो प्रयोगों में उनका साथ दे सकें.’
ठीक है...डा॓. जेनर बड़े आदमी हैं. उन्हें कोई न कोई अवश्य मिल जाएगा. तू क्यों परेशान होता है.’
वही तो मां, लोग डरते बहुत हैं. इतने अच्छे काम के लिए भी कोई आगे नहीं आना चाहता.’
फिर?’ बूढ़ी मां का मन आशंकाओं से घिर गया.
मैं कुछ और तो कर नहीं सकता. पर उनकी मदद तो कर ही सकता हूं. तू मेरी अच्छी मां है. और भली भी. मुझे उनके पास जाने की अनुमति तू जरूर दे देगी.’ लड़के ने कहा. मां सोच में पड़ गई.
इतनी कहानी सुनाने के बाद बंदर ने चुप्पी साध ली.
आगे क्या हुआ?’ नन्हे चिराग ने पूछा. उसका कौतूहल अपने चरमबिंदु पर था. तब बंदर ने आगे कहना शुरू किया—
मां ने रोकने की बड़ी जिद की. मगर बेटे की इच्छा के आगे उसे झुकना ही पड़ा. बेटा चला गया. लंबे प्रयोगों के बाद डा॓. जेनर चेचक की वैक्सीन बनाने में कामयाब हो गए. पूरी दुनिया जब उनके काम की सराहना कर रही थी तब उन्होंने एक दिन कहा था—
मेरी सफलता में उन लोगों का योगदान जरा भी कम नहीं है जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए भी मेरी मदद की थी. ऐसे बलिदानियों में वह लड़का जेम्स फिप्स भी शामिल है जिसने अपनी शारीरिक कमजोरियों के बावजूद; बहादुरी दिखाई और अपनी जान पर खेलकर भी मेरा साथ दिया. मैं उसको सलाम करता हूं.’
बंदर ने अपनी कहानी पूरी की. कुछ देर तक वहां चुप्पी छाई रही.
कुछ समझे?’ थोड़ी देर के बाद बंदर ने पूछा.
हां, मैं बहुत घबरा गया था. पर अब नहीं...मैंने तय कर लिया है कि अंधेरे से लडूंगा...बूढ़े चिराग की तरह...हमेशा.’
शाबाश!’ बंदर ने खुशी-खुशी कहा.
मगर इस घने जंगल में...मेरे तो पांव भी नहीं हैं.’ नन्हे को फिर उदासी ने घेर लिया.
ठीक है, कल दीवाली की रात है. मैं तुम्हें ऐसी जगह ले जाऊंगा जहां तुम्हारी जरूरत है.’ बंदर ने आश्वासन दिया.
अगली रात नन्हा जिस झोंपड़ी में झिलमिला रहा था; वह एक बुढ़िया का ठिकाना थी. जो बस्ती से दूर एकदम अकेली रहती थी. उसका बेटा वर्षों से बाहर था. चिराग को देखकर उसकी आंखें छलछला उठीं. वह लगभग दौड़ती हुई चिराग के पास पहुंची. फिर उसकी थरथराती हुई लौ को अपनी बूढी हथेलियों में भर लिया, बोली—
सालों के बाद इस झोंपड़ी में चिराग जला है. हो न हो, कल को मेरे घर का चिराग भी जरूर लौट आएगा.’ बुढ़िया की भाव-विहव्ल, कंपकंपाती-सी आवाज सुनकर नन्हे को पहली बार अपने होने का एहसास हुआ. पहली बार ही उसने जाना कि आत्मा की रोशनी और उसका सुख क्या होता है.

ओमप्रकाश कश्यप
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