[कुछ दिनों पहले तैलंग जी ने फेसबुक पर सर जेम्स बेरी का एक सुभाषित उद्धृत किया था. उसी को केंद्र मानकर यह बालकथा लिखने की कोशिश की है. चूंकि इसके पीछे तैलंगजी की प्रेरणा है, इसलिए यह ससम्मान उन्हीं को समर्पित है. - ओमप्रकाश कश्यप]
नन्ही कहानी अपनी नानी से बोली—
‘नानी कोई कहानी सुना!’
बिना देर किए नानी कहानी सुनाने लगी—
‘मेरी नानी की नानी के पास ढेरों कहानियां थीं. उन्होंने वे कहानियां अपनी नानी से सौगात में प्राप्त की थीं. उनके पास कहानियों का बहुत बड़ा बक्सा हुआ करता था. पर मेरी नानी की नानी बहुत गुणी और समझदार थीं. उन्होंने नानी से मिली कहानियों को बहुत सहेज-संभालकर रखा. बाद में कुछ कहानियां अपनी ओर से जोड़ती गईं. नानी की नानी जब मरने लगीं तो कहानियों का पिटारा नानी को सौंप गई. मेरी नानी और भी गुणी निकली. अपनी नानी से मिली कहानियों को सहेजने के लिए उसने एक महल बनवाया. नाम रखा—कहानीमहल. उसके बाद सारी कहानियां कहानीमहल में निवास करने लगीं. जो भी कहानीमहल के पास से गुजरता, कहानियों को देखता-सुनता-गुनता. पसंद आने पर कुछ कहानियों को अपने साथ ले जाता. कुछ दूर देश से लाई कहानियां कहानीमहल में छोड़ जाता. धीरे-धीरे कहानीमहल बढ़ता गया. उसमें रहने लायक जगह न बची तो कुछ कहानियां जंगल में रहने लगीं. फिर वहां से आसपास के इलाकों तक आने-जाने लगीं. एक दिन ऐसा आया कि कहानीमहल से निकली कहानियां पूरी दुनिया छा गईं.
‘नानी कोई नई कहानी सुनाओ.’ नन्ही कहानी झुंझलाई.
‘वही तो सुनाने जा रही हूं. कहानीमहल में एक दिन एक कहानी आई. दिल की भली. उदार. हमेशा दूसरे की मदद करने को तैयार रहती. हमेशा वही करती जो दूसरों को पसंद आए. दूसरों के काम आना उसको अच्छा लगता. परंतु जब भी दूसरी कहानी को आसपास देखती तो झुंझला पड़ती—
‘कितनी बेशऊर है....क्या यह कोई काम ढंग से नहीं कर सकती.’
उस कहानी को हमेशा यह गुमान रहता कि काम कोई भी हो, उससे अच्छा कोई दूसरा कर ही नहीं सकता. पर वह सारे काम अकेली तो कर नहीं सकती थी. इसलिए दूसरे को देख-देख झुंझलाती. धीरे-धीरे चिड़चिड़ापन उसके स्वभाव का हिस्सा बन गया. आखिर एक दिन वह बीमार पड़ गई. पर नन्ही कहानी थी सबकी चहेती. उसकी देखभाल करने कई कहानियां आ जुटीं. अब परेशानी और बढ़ी. नन्ही कहानी उनमें से एक भी पसंद न थी. वह बात-बात पर झुंझलाती. आखिर जब डा॓क्टर आए तो उसने साफ-साफ कह दिया—
‘डा॓क्टर साहब इनसे घर जाने को कहिए...’
‘‘मरीज के पास अधिक तीमारदार रहने भी नहीं चाहिए. पर ये सब तुम्हें बेहद चाहती हैं. मैंने मना किया तो अस्पताल के बाहर बैठ़ गईं. सबकी एक ही रट है’—‘हमारी सबसे प्यारी कहानी बीमार है, उसने संकट में दूसरों की हमेशा मदद की है. अब हमारा कर्तव्य है कि जो भी बन पड़े, उसके लिए करें. कृपया हमें उनके पास रहने दीजिए.’ इतनी सारी कहानियों की फरियाद एकाएक टाली भी तो नहीं जा सकती.’’ डा॓क्टर ने असमर्थता दिखाई.
‘सारे दिन मुझे घेरकर बैठी रहती हैं, न खाने का शऊर है न पहनने का....मैं पागल हो जाऊंगी.’ नन्ही कहानी झुंझलाई.
‘ठीक है, मैं जाने को कह दूंगा.’ उसके बाद डा॓क्टर ने कहानी की तीमारदारी में लगी सभी कहानियों को घर भेज दिया. नन्ही कहानी पर दवाइयों का असर न पड़ा. उसकी बीमारी रात-दिन बढ़ती गई.
एक दिन बहुत-ही छोटी कहानी उससे मिलने आई. वह नन्ही कहानी से भी नन्ही थी. सब उसको छुटकी कहानी कहते थे.’
‘सब तुम्हारी बहुत प्रशंसा करते हैं दीदी.’ छुटकी कहानी ने नन्ही कहानी से कहा.
‘....मालूम है मुझे. कुछ और?’
‘मुझे तीन दिन से बुखार था. मां ने घर से बाहर निकलने को मना किया है. पर तुम्हारी बीमारी के बारे में सुना तो रोक नहीं पाई. घरवालों से नजरें बचाकर चली आई हूं.’
‘अरे, वे सब परेशान होंगे! तुम्हें बताकर आना था.’
‘मेरे घरवाले बहुत अच्छे हैं. सच जानकर वे नाराज नहीं होंगे. मैं एक नेक काम के लिए घर से निकली हूं. लेकिन....’
‘लेकिन क्या?’
‘मैं बहुत छोटी हूं न! मुझे कोई काम अच्छी तरह नहीं आता. मेरी मां जब भी नाराज होती है, मुझे धरती का बोझ कहकर गुस्सा दिखाती है.’
‘न...न! तुम तो बहुत प्यारी हो.’ नन्ही कहानी को छुटकी कहानी की सरलता अच्छी लगी.
‘सोचती हूं, जब तुम अच्छी हो जाओगी तो मैं तुमसे अच्छी-अच्छी बातें सीखूंगी, ताकि मैं भी तुम्हारी तरह सबके दिल को जीत सकूं.’
अपने व्यवहार से छुटकी कहानी ने नन्ही कहानी का दिल मोह लिया. वह अस्पताल में ही नन्ही कहानी के साथ रहने लगी. फिर छुटकी कहानी ने न जाने क्या जादू किया कि नन्ही कहानी उसके प्रत्येक कार्य की खूब प्रशंसा करती. धीरे-धीरे वह स्वस्थ्य होने लगी. डा॓क्टर हैरान थे. कुछ दिनों पहले जिस उपचार से उसका साथ लगातार गिर रहा था, अचानक क्या हुआ कि उसी दवा से एकदम भली-चंगी हो गई. सच जानने के लिए डा॓क्टर व्याकुल थे, पर रहस्य की गुत्थी सुलझ ही नहीं पा रही थी.
इसी बीच डा॓क्टर को नई बात पता चली. नन्ही कहानी की बीमारी से कहानीमहल की सबसे बूढ़ी कहानी बहुत चिंतित थी. उसने ही छुटकी कहानी को नन्ही कहानी की देखभाल करने भेजा था. उन्होंने कहानीमहल जाने का निश्चय कर दिया.
डा॓क्टर जिस समय कहानीमहल पहुंचे बूढ़ी कहानी अनेक कहानियों से घिरी बैठी थी. वे पहले भी बूढ़ी कहानी से मिले चुके थे. बूढ़ी कहानी तो दुनिया के अनेक प्राणियों से कई-कई बार मिल चुकी थी.
‘आइए डा॓क्टर साहब, आपने अच्छे इलाज से मेरी बिटिया स्वस्थ होकर कहानीमहल वापस लौट आई है. मैं आपकी बहुत-बहुत आभारी हूं.’ बूढ़ी कहानी ने कहा. परंतु डा॓क्टर के मन में तो कुछ और ही चल रहा था. उसी उलझन के कारण उनके चेहरे पर तनाव था. सहसा बूढ़ी कहानी ने बात आगे बढ़ाई—
‘आपके यहां आने का कारण हममें से किसी से भी छिपा नहीं है. दरअसल शताब्दियों से आदमियों की संगत तथा उनके दिलो-दिमाग के आसपास रहने से हम उनके मन की हलचल को बहुत जल्दी पहचान लेती हैं.’
‘फिर तो मेरी मुश्किल आसान हो गई. नन्ही कहानी का उपचार मैं महीने-भर से करता आ रहा था. फिर भी उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा था. छुटकी कहानी ने जाते ही न जाने क्या चमत्कार किया कि वही दवाइयां जो पहले बेअसर थीं, एकाएक असर करने लगीं. केवल चार दिन में वह अस्पताल से बाहर निकल आई. आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ?’
‘ऐसा काम करने में कोई बड़प्पन नहीं है, जिसे हर कोई पसंद करे. बड़ी बात है दूसरे के प्रयास की सच्चे मन से प्रशंसा करना....जो ऐसा करता है, वह अनेक व्याधियों से स्वतः मुक्त हो जाता है.’ बूढ़ी कहानी ने सूत्रारूप में बात कही. सुनकर डा॓क्टर साहब की बुद्धि चकराने लगी—
‘रात-दिन मरीजों में रहने के कारण मुझे पहेलियां बूझने का अभ्यास नहीं रहा.’
‘यह पहेली नहीं, हकीकत है.’ सबसे बूढ़ी कहानी ने मुस्कराहट बिखेरते हुए कहा—‘नन्ही कहानी हमेशा उदारतापूर्वक दूसरों की मदद करती आई थी. न जाने कब यह भ्रम उसके दिलो-दिमाग पर सवार हो गया कि इस काम को उससे बेहतर और उतनी ईमानदारी से कोई दूसरा कर ही नहीं सकता. इसलिए जब भी वह दूसरी कहानियों को उपकार की राह पर आगे बढ़ते देखती, झुंझला पड़ती. इसी तनाव में बीमार पड़ गई. छुटकी कहानी के साथ रहते हुए ही सचाई उसकी समझ में आई...’
‘कैसी सचाई?’
‘यही कि दूसरे के कर्म की सच्चे मन से प्रशंसा करना ही सच्चा बड़प्पन है.’
‘जब भी किसी कहानी के पास गया हूं, हमेशा कुछ न कुछ नया सीखने को मिला है. आज फिर वैसा ही अनुभव हुआ. अब मैं चलता हूं.’ डा॓क्टर साहब बोले और तेज कदमों से वापस क्लीनिक की ओर लौट पड़े, जहां मरीज उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे.
ओमप्रकाश कश्यप