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शनिवार, अगस्त 20, 2011

मत रूठ गुड़िया रानी


मत रूठ गुड़िया रानी
तुझे चिज्जी खिलाऊंगी

एक रुपये की चुस्की खाना
आठ आने की टा॓फी
चार आने की चूरन-पुड़िया
देगी धन्नो काकी
मेले में चल एक रुपये की
गुल्लक दिलाऊंगी

गर्मागरम कचैड़ी खाना
लड्डू और पंजीरी
मेवा वाली खीर खिलाऊं
साथ में हलुआ-पूरी
सावन में तीजों से पहले
सूट नया सिलवाऊंगी

मामा जी से बोल चुकी हूं
ढूंढें कुंवर सलोना
चंदा जैसा रूप हो जिसका
दमके जैसे सोना
गाजे-बाजे-धूम-धमक से
तेरी शादी रचाऊंगी
                               ओमप्रकाश कश्यप
                                                                                               opkaashyap@gmail.com




सोमवार, अगस्त 15, 2011

कथा-गणतंत्र


लेखक महोदय कहानी की तलाश में थे. एक नन्ही मासूम-सी कहानी. जिसे सुनते ही मन-कमल खिल उठे. सांसों में सारंगी बजने लगे. पर वाहनों के शोर, चिमनियों से निकलते धुंए के बीच ऐसी कहानी आए कहां से! इधर सुबह की ओस उतरी नहीं कि हवा में काले झकोरे घुसपैठ करने लगे. लेखक का मन पहले ही उदास था. उन्हें देख वह और भी खिन्न हो उठे.
जैसी कहानी मैं चाहता हूं, वह इस वातावरण में तो जी नहीं सकती...धुंए के बवंडर में जब बड़े-बड़े दरख्त नहीं टिक पाते तो कोमल कली-सी कहानी का क्या?’ लेखक महोदय ने अपने आप से कहा. कहानी की तलाश में वे आगे बढ़ते चले गए. चलते-चलते पांवथके, पर मन की उमंग ने रुकने न दिया. फिर जब हल्की हवा की गुनगुनाहट कान में पड़ी. पंछियों की चहचहाट ने मन को छुआ तो रोम-रोम प्रफुल्लित हो गया...सारी थकान उडनछू. उन्होंने मग्न मन गर्दन उठाकर देखा, चारों ओर हरियाली की कनातें तनी थीं. ऊपर दूर तक फैला हुआ नीलांबर. वृक्षों-लताओं की कोमल पंखुड़ियों पर झूला झूलती ओस की बूंदें. और उनसे टकराकर वापस लौटतीं, स्वर्ण-आभा बिखेरतीं चंचल सूर्य-रश्मियां. सब कुछ जीवन की नई उमंगों से भरा था. मगर लेखक के मन में तो उदासी पसरी हुई थी. इतना कुछ था, पर कहानी नहीं थी.
कहानी नहीं तो कुछ नहीं—लेखक ने सोचा.
मुझे इतनी जल्दी निराश नहीं होना चाहिए. कहानी जब हर जगह है तो यहां भी जरूर होगी.’ मन के दूसरे कोने से तत्काल आवाज आई. उसी की प्रेरणा पर वह आगे बढ़ने लगे. पांवों के नीचे मानो कालीन बिछा हुआ था. हरियाली का कालीन. घास इतनी कोमल और मासूम कि लेखक उसपर पांव रखते हुए सकुचा रहे थे. अचानक एक फुनगी उनके पांव में फंसी. उसको मुक्त करने के लिएवे जमीन की ओर झुके. तभी उनकी निगाह घास के नन्हे-नन्हे फूलों पर पड़ी.
उसी समय दूर जंगली जानवरों का एक काफिला दौड़ लगाते हुए वहां से गुजरा. उनके कदमों की आहट से दिशाएं धमक उठीं.लेखक ने बड़ी कठिनाई से खुद को बचाया. थोड़ी देर पहले जहां शांति थी, वहां अव्यवस्था छा गई. घास की नन्ही फुनगियां जो कुछ देर पहले तक शान से सिर उठाए थीं, जमीन पर बिछकर अपने हालात पर आंसू बहाने लगीं. फिर भी कुछ फूल थे, जो अब भी ज्योंकी त्यों मुस्करा रहे थे. उनकी देखा-देखी घास जो थोड़ी देर पहले बिछ-सी गई थी, दुबारा गर्दन उठाने का प्रयास करने लगीं. थोड़ी देर बाद सब कुछ पहले जैसा हो गया. यह देख लेखक दंग रह गए.
जो भी यहां से गुजरता है, वही तुम्हें कुचलकर चला जाता है. क्या तुम अपनी हालत से खुश हो?’ उन्होंने फुनगी से पूछा.
कर्तव्यपालन में भला और बुरा क्या?’ जवाब मिला. लेखक कुछ समझे, कुछ नहीं, बस अगला प्रश्न दाग दिया—
लोग तुम्हें कुचलें नहीं तो और भी संुदर खिल सकोगी?’
वैसा हो तो भी बुरा नहीं है, पर जो है उतना भी काफी है.’
क्या तुम्हें पहेलियां बूझने की आदत है?’
इसमें पहेली कैसी. घास न हो तो भी धरती सहती ही हैं. बिना किसी शिकायत, बगैर उफ् किए. मैं जिस मिट्टी से अन्न-जल लेती हूं. जिसके पोषक तत्वों से मेरा शरीर बना है. उसके और प्राणियों के पैरों के बीच आकर यदि मैं धरती का थोड़ा-सा भी बोझ बांटलेती हूं, तो इसमें कैसा बड़प्पन. बल्कि मुझे तो इसी में अपने जीवन की सार्थकता नजर आती है.’ घास की बात सुन लेखक को अपना अस्तित्व छोटा नजर आने लगा. मामूली फुनगी का अपनी मातृभूमि के प्रति प्यार और समर्पण देखकर वह निरुत्तर हो गए. वहां से चलते हुए वे नदी किनारे पहुंचे. वहां एक कछुआ अपने सात बच्चों के साथ रेत में बैठा हुआ था.
आज तो सबकुछ बदला हुआ-सा है. लगता है कि अब मेरी कहानी मुझसे दूर नहीं है.’ लेखक के मुंह से बरबस निकला.
क्या तुम इन्हें पढ़ा रहे हो?’ उन्होंने पूछा.
मैं तो केवल अपने अनुभव बांट रहा हूं. उसमें कुछ भी दुनियादारी से अलग नहीं है.’ कछुआ बोला, फिर अपने बच्चों को संबोधित करके बोला, ‘मेरा समय पूरा हो चुका है. बहुत जल्दी जंगल के राजा का चुनाव होगा. तुम मेरे अपने बच्चे हो. चुनाव के समय जो भी फैसला करो, खूब सोच-समझकर करना.’
कैसा चुनाव...’ बड़ा बेटा उग्र स्वर में बोला, ‘पुत्र अपने पिता की विरासत का स्वामी होता है. आपका बेटा होने के नाते नदी के प्राणियों का राजा बनना मेरा अधिकार है. आपकी बात कोई टालेगा भी नहीं. परंपरा-अनुसार नए राजा को ताज आप ही पहनाएंगे. इसलिए आपको चाहिए कि पिता होने के नाते मेरे अधिकारों की रक्षा करें.’
राजा की जिम्मेदारी तो इस नदी के प्राणियों ने ही मुझे सौंपी है. वह साधारण विरासत नहीं. राजा वही बनेगा जो सुशासन करसके. आजादी को संभालकर रख सके.’
उपदेश देकर आप हमारा अधिकार नहीं छीन सकते. जंगल में देखो, हमेशा शेर ही वहां का राजा बनता है.’
यह नदी है, यहां किसी की मनमानी नहीं चलती. हम सब मिल-बैठकर अपना राजा चुनते आए हैं.’ बूढ़े कछुए ने बच्चों को समझाने की लाख कोशिश की. पर उनमें से एक भी समझने को तैयार न था.
ठीक है. मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं. उसके बाद तुम जो फैसला करो, वही मुझे मंजूर होगा.’ बच्चे शांत हुए तो कछुए ने कहानी आरंभ कर दी—
वर्षों पहले की बात है. उन दिनों आदमी भी अंधकार में था. ताकत का राज चलता था. जिसके हाथों में ताकत आ जाती, वही दुनिया पर सवारी गांठने लगता. तो जिन दिनों की यह कहानी है, उसके ठीक पहले दुनिया में खुशहाली थी. लेकिन लोग सुख में इतने डूबे कि धीरे-धीरे अपना कर्तव्य और सारी नैतिकताएं बिसराने लगे थे. समाज में अनुशासन बनाए रखने के लिए लोकसंसद थी. स्वार्थ में डूबे लोग उसकी भी उपेक्षा करने लगे. ऐसे में उसको मौका मिला. लोकसंसद को भंग कर वह खुद राजा बन बैठा.’
वह कौन?’ बच्चों में से एक ने पूछा.
डयारू था उसका नाम....एक ताकतवर, घमंडी और क्रूर व्यक्ति. राजा बनते ही डयारू ने देश के लोगों का वह हाल किया किसब त्राहि-त्राहि कर उठे—‘आज के बाद वही होगा, जैसा मैं चाहूंगा. लोग वही सोचेंगे जो मैं कहूंगा. हटकर सोचने, हुक्म न मानने वाले का सिर कलम कर दिया जाएगा.’
डरे हुए लोग डयारू के आगे नतमस्तक होने लगे. दरबार में चापलूसों का जमाबड़ा बढ़ता ही गया. उनके लिए डयारू दिन कहे तो दिन, रात कहे तो रात. इससे डयारू का दुस्साहस और भी बढ़ने लगा—
मैं यहां का एकक्षत्र सम्राट हूं. धरती-चांद-सितारे-सूरज सब मेरा आदेश मानते हैं.’
महाराज, जंगल के गुस्ताख जानवर अब भी आपके आदेश के बिना चैकड़ी भरते हैं. उदंड नदी आपकी अनुमति के बगैर कल-कल बहती है और जब चाहे तब, किनारों को तोड़ मनमाने ढंग से इधर-उधर चली जाती है.’
अच्छा!’ डयारू गरजा. अगर ऐसा है तो जगल को जला डालो. नदी का रास्ता रोक दो.’ आदेश सुनाया गया. तानाशाह का हुक्म. सैनिक जंगल को साफ करने में जुट गए. नदी को रोकने की तैयारियां की जाने लगीं.
आम जनता अभी तक शांत थीं. डयारू और उसके मुंह लगे दरबारी अपनी सीमा में रहकर कुछ भी करें, इतना वह सह सकतीथी, ‘कोउ नृप होय हमें का हानि! के नकारात्मक भाव से सहती भी आई थी. लेकिन जंगल को साफ करना, नदी का बहाव रोकना, इससे तो जनजीवन पूरी तरह नष्ट हो जाएगा. पेड़े-पौधे हैं तो जीवन है. पानी है तो जिंदगानी है. राजा का आदेश सुनकर लोगों में खलबली मच गई. कुछ लोग हिम्मत करके डयारू के दरबार में भी गए. आदेश वापसे लेने की प्रार्थना की. तानाशाह उन्हें देखते ही उबल पड़ा—
ये भी जंगल के जानवरों जितने गुस्ताख हैं, नदी जितने ही उदंड हैं. इन्हें कैद कर लिया जाए.’ फरियादी कैद कर लिए गए. कहते-कहते कछुआ रुका. बच्चे सांस रोककर कहानी सुन रहे थे.
आगे क्या हुआ?’ एक ने पूछा. बाकी भी उसके स्वर में स्वर मिलाने लगे.
नदी किनारे काष्ठकारों का एक गांव था. वहां के शिल्पकार लकड़ी की सुंदर-नक्काशीदार चीजें बनाते. नाव बनाने में तो उनका दूर-दूर तक सानी न था. बड़े-बड़े समुद्रों, महानदियों में उनकी बनाई नौकाएं रात-दिन तैरतीं. एक दिन डयारू के सैनिकों का एक जत्था उस गांव में पहुंचा—
नदी सम्राट डयारू का अनुशासन नहीं मानती. उसको रोकना है. सम्राट का आदेश है कि बड़ी-बड़ी नावें बनाई जाएं. उनमें रेतभरकर उदंड नदी के बहाव को रोका जाएगा. उसके बाद महाराज डयारू जिस ओर चाहेंगे, नदी को उसी दिशा में बहना पड़ेगा. इसके लिए महाराज ने गांव के सभी काष्ठकारों और मजदूरों को राजधानी पहुंचने का आदेश सुनाया है.’ लोग चुप. किसी के मुंह से बोल न फूटा. उसके बाद तो जब तक सैनिक रहे, वातावरण में चुप्पी छाई रही.
उसी शाम सैनिकों के कूंच करते ही गांव में एक सभा हुई. वहां के मुखिया का नाम था, विद्यानंद. वह बहुत ही अनुभवी. बुद्धिमान और व्यवहार-कुशल आदमी था.
सैकड़ों नाव बनाने में तो महीनों लगेंगे. इतने समय तक राजा की बेगार करनी पड़ी तो हमारे परिवारों का क्या होगा?’ शाम की सभा में काष्ठ-शिल्पियों ने चिंता व्यक्त की.
डयारू जिद्दी, क्रूर और तानाशाह है. समझदारी की कोई बात उसके गले नहीं उतरती. उसको समझाने भेजे नागरिकों का हाल तो तुम देख ही चुके हो. आज तक वे उसकी कैद में चक्की पीस रहे हैं.’
आपके अनुसार हमें डयारू का आदेश मानना ही होगा?’ विद्यानंद को हिम्मत हारते देख एक ने पूछा.
फिलहाल तो दूसरा रास्ता नजर नहीं आता. इतना भरोसा रखो कि युक्ति में ही मुक्ति है.’ अगले दिन काष्ठकारों का दल डयारू के दरबार में उपस्थित हुआ. मुखिया विद्यानंद ने कहा—‘हमें अपने राजा का आदेश स्वीकार है. मगर राजधानी तक सारे औजार लाना संभव नहीं है. आज्ञा हो तो यह काम हम अपने गांव में रहकर करना चाहते हैं.’
मेरे सैनिक तुम सब पर नजर रखेंगे. जो भी काम में लापरवाही बरतेगा, उसका सिर कलम कर दिया जाएगा.’ डयारू गरजा.
महाराज सैकड़ों नावों के लिए ढेर सारी लकड़ी की जरूरत पड़ेगी.’
मुझे जंगल को भी सबक सिखाना है, इसलिए मेरे सैनिक उसे साफ करने पर तुले हैं.’
नाव बनाने के लिए कपड़ा, रस्सी, मोम जैसी चीजें भी जरूरी हैं.’
राज के जितने भी जुलाहे, रंगरेज, रस्सी बटने वाले भील और मजदूर हैं, सभी को काष्ठकारों के गांव भेज दिया जाए.’ डयारू ने आदेश दिया.
महाराज की दया हो. गांव में हजारों की संख्या में लोग जुटेंगे...उन्हें खाने-पीने के अलावा....’
हम समझते हैं. सब समझते हैं.’ डयारू ने गर्दन हिलाई, फिर सैनिकों को संबोधित कर बोला, ‘किसानों से कहो, अनाज की कमी नहीं पड़नी चाहिए. दुकानदार मजदूरों और कारीगरों के लिए बाकी चीजों का बंदोबस्त करें, जिसने भी चूक की, उसका सिर कलम कर दिया जाएगा.’
आपकी दयालुता के क्या कहने! महाराज काम जल्दी से जल्दी का पूरा हो, इसके लिए आदमी-औरत सबको एकजुट होकर काम
करना पड़ेगा. बच्चों के मनोरंजन के लिए यदि एक-दो किस्सागो और गायक भी गांव भेज दिए जाएं तो....’
डयारू किस्सागो, गायकों और यहां तक शिक्षकों को भी नापसंद करता था. उसकी नजर में ये लोग लोगों को गलत पाठ पढ़ातेथे. इसलिए राजा बनते ही राज्य की सारी पाठशालाओं को बंद करा दिया गया था. परंतु उस समय उसका सारा ध्यान नदी को ‘सबक सिखाने’ पर केंद्रित था. इसलिए उसने विद्यानंद की बात मान ली. वे लोग वापस गांव लौट आए. अगले दिन से ही वहां कारीगरों का जमाबड़ा होने लगा. जंगल से लाए गए वृक्ष वहां जमा होने लगे. डयारू ने सैनिकों की एक टुकड़ी लोगों पर नजर रखने के लिए रख छोड़ीथी. पर कारीगरों को अपने-अपने काम में जुटा देख सैनिक निश्चिंत हो गए. नाव बनाने का काम आगे बढ़ता गया. शिल्पकार काम में जुटे थे. लेकिन उसमें मन किसी का नहीं था. सब भीतर से व्यथित थे.
मैं लोगों के तन ढकने के लिए कपड़ा बुनता था. अपने पेशे को पवित्र मानता आया हूं. परंतु अब मुझे एक तानाशाह के लिएकाम करना पड़ रहा है. मुझे अपने ऊपर शर्म आ रही है.’ एक जुलाहा बराबर में काम कर रहे रंगरेज से बोला. वह कोई उत्तर दे उससे पहले ही उसके साथ काम कर रहा युवक काष्ठकार कहने लगा—
मेरी बनाई गई नावें समुद्र का सीना चीरकर आगे बढ़ती जाती हैं. जाने कितने यात्रियों को रोज उनके गंतव्य तक ले जाती हैं.सैकड़ों व्यापारी मेरी बनाई नावों से व्यापार करते हैं. लेकिन अब तानाशाह के लिए काम करते हुए जी दुःखता है. इससे तो अच्छा है कि मैं अपने हाथ ही कटवा लूं.’
मुखिया विद्यानंद खुद भी अच्छे काष्ठकार थे. लकड़ी को छू देते तो उसमें मानो जान आ जाती. बाकी कारीगरों के साथ वे भी काम पर जुटे थे. चेहरे पर गंभीरता थी. युवक काष्ठकार ने उन्हें विचलित कर दिया—
तुम्हारा क्या कहना है?’ विद्यानंद ने बराबर में बैठे किस्सागो से पूछा.
अपने जीवन में मैंने लंबा समय देखा है. हजारों लोगों से मिला हूं. मगर इस विपत्ति में कुछ याद नहीं आता, लेकिन वर्षों पहले एक कहानी मैंने सुनी थी. न जाने क्यों, वह भुलाए नहीं भूलती!’
तुम तो खुद बड़े किस्सागो हो, फिर ऐसी कौन-सी कहानी है जो तुमसे भुलाए नहीं भूलती?’ विद्यानंद ने आश्चर्य-मिश्रित स्वर में पूछा.
फ्रांस के दार्शनिक की लिखी छोटी-सी कहानी है. पर कहानी से ज्यादा तो यह पहेली है?’
पहेली! डयारू के राज में क्या यह पहेली बूझने का समय है....’ रंगरेज ने बुझे मन से कहा.
कोई बात नहीं, कहानी समझकर ही सुन लीजिए....’ विद्यानंद ने कहा तो किस्सागो ने कहना आरंभ कर दिया—
कहानी इस तरह है—मान लीजिए फ्रांस में इस समय दो हजार डाॅक्टर, वकील, अध्यापक, दो लाख किसान, दो लाख मजदूर, दो हजार छोटे व्यापारी तथा इतने ही शिल्पकार हैं. अब कल्पना कीजिए, हालांकि यह बहुत बुरी कल्पना होगी, लेकिन बुरे सपने की भांतिभुला देने के लिए ही सही, कल्पना कीजिए कि इस एक बड़े हादसे में वे सबके सब एक साथ मारे जाते हैं. तब फ्रांस का क्या होगा?’
जब जनता ही न रहेगी तो देश कैसा...कोरी बंजर धरती, जिसपर सांप-बिच्छु और चमगादड़ ही बसेरा करेंगे. शिल्पकारों में से एक ने बिना एक भी पल गंवाए उत्तर दिया. विद्यानंद ने देखा, सब कथा का में डूबे हुए थे.
ठीक कहा आपने, जनता है, तो देश है, आदमी के बिना धरती तो बंजर बनेगी ही, अब एक ओर कल्पना कीजिए...उसी फ्रांसमें सौ नेता और मंत्री, दो सौ अधिकारी, प्रशासक, और कुछ दर्जन धर्माचार्य हैं. यदि एक हादसे में ये सब के सब चल बसें, तब उस देशका क्या होगा?’
..च्च...च्च्च! बहुत बुरा होगा. इस झटके से उबरने में तो उस देश को वर्षों लग जाएंगे.’ शिल्पकारों की ओर से तत्काल जवाब आया.
समय लगेगा, मगर उबर जाएंगे.....दार्शनिक ने भी यही लिखा था. उसका नाम था संत साइमन. जानते हैं उसके बाद फ्रांस में क्या हुआ था? किस्सा महज डेढ़ सौ वर्ष पुराना है.’
आप ही बताइए....!’ सबकी आंखें किस्सागो पर टिकी थीं.
फ्रांस की जनता समझ गई कि देश राजा से नहीं, जनता से बनता है. उसके बाद उसने गजब की हुंकार भरी, जिससे राजसत्ताएक ही झटके में जमीन पर आ गिरी.’



इतनी कहानी सुनाने के बाद कछुआ रुक गया. शिलाखंड पर बैठे लेखक की सांस भी धौंकनी की तरह चल रही थी. कछुआ के बच्चे सांस थामे उसकी ओर देख रहे थे.
आपने हमें यह कहानी क्यों सुनाई. क्या आपको लगता है कि डयारू और फ्रांस के राजा की तरह हम भी आततायी और तानाशाह सिद्ध होंगे?’ बड़े बेटे ने शिकायत-भरे स्वर में पूछा.
हरगिज नहीं, पिता होने के नाते मुझे तुमपर पूरा भरोसा है. तुममें राजा बनने के सभी आवश्यक गुण हैं. इसलिए मैं कामना करता हूं कि तुम यहां के राजा बनो.’
यह क्या बात हुई.’ कछुआ के बच्चों के साथ-साथ लेखक महोदय भी उसकी पहेली में उलझ गए.
तुम नदी के राजा बनो, इसमें कुछ भी गलत नहीं है. गलत होगा राजसत्ता को विरासत मानकर तुम्हें सौंप देना. ऐसी परंपराओं से ही डयारू जैसे तानाशाह पैदा होते हैं, जो एक न एक दिन जनता के आक्रोश का शिकार बनते हैं. क्या अब भी तुम....?’ कछुआ ने अपनी नजरें बडे़ बेटे पर गढ़ा दीं.
नहीं, परंतु मैं चुनाव में हिस्सा जरूर लूंगा; और चाहूंगा कि आप मुझे आशीर्वाद दें.’
बिलकुल.’ कछुआ के चेहरे पर अचानक चमक छा गई. मानो छाती पर रखा मनो बोझ हट गया हो. आशीर्वाद ही क्यों? चुनाव में खड़े उम्मीदारों में से यदि मुझे लगा कि तुम उन सबसे योग्य हो तो मैं तुम्हारे पक्ष में मतदान भी करूंगा.’
उसके बाद कछुआ ने नदी में डुबकी लगा दी. पीछे-पीछे उसके बच्चे भी चलते बने. लेखक महोदय शिला पर जड़वत बैठे रहे. तंद्रा टूटी तो उठे, चारों ओर देखा. प्रकृति वहां अपना वैभव लुटा रही थी.
इस प्रकृति ने आज तक किसी को निराश नहीं किया, पर आज मुझे जो दिया है, वह पूरी मनुष्यता के लिए बहुमूल्य उपहार है.

ओमप्रकाश कश्यप
दूरभाष : 9013254232