सुप्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्युशियस अपने मित्रों के साथ सत्य की खोज में निकला हुआ था. साथ थे उसके बीस जिज्ञासु साथी. जिनमें व्यापारी, किसान, मजदूर, दस्तकार, गरीब और अमीर सभी शामिल थे. वे सभी कन्फ्युशियस को अपना गुरु मानते थे. तीन महीनों तक उनकी यात्रा निरंतर-निर्बाध चलती रही. इस बीच कन्फ्युशियस लगातार विचार-विमर्श करता रहा. वह हमेशा चिंतन-मनन में लीन रहता. बहुत कम बोलता. शिष्यों में से कोई कुछ पूछता तो सक्षिप्त-सा उत्तर देकर फिर अपने विचारों में डूब जाता. इस तरह वे अपने ठिकाने से सैकड़ों मील आगे निकल आए थे. अचानक एक शिष्य ने ठिठकते हुए कन्फ्युशियस की ओर देखा और सवाल किया—
‘आचार्य, मुझे सबसे ताकतवर शब्द की तलाश है?’
‘अपने सटीक स्थान पर तो हरेक शब्द ताकतवर होता है.’
‘फिर भी. मैं एक ऐसा शब्द चाहता हूं जिसके द्वारा मैं अपने आचरण को नियंत्रित कर सकूं?’
कन्फ्युशियस सोच में पड़ गया. कुछ देर पश्चात उसके चेहरे पर बच्चों जैसी खुशी झलकने लगी. वह बोला, ‘मैंने पा लिया...बिल्कुल पा लिया. वह शब्द है—सहृदयता! केवल सहृदय होकर ही तुम अपने आचरण को नियंत्रित कर सकते हो.’
‘कैसे?’ शिष्य ने पूछा. तब कन्फ्युशियस ने बताया—‘प्राणीमात्र के प्रति सहृदय रहो. दूसरों के साथ वही व्यवहार करो जैसे व्यवहार की तुम दूसरों से अपने प्रति अपेक्षा रखते हो.’
शंका का समाधन होते ही यात्रा फिर आगे बढ़ने लगी. रास्ते में कई पड़ाव आए. अनेक मोड़. वे चलते गए. चलते-चलते सभी एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां चारों ओर जंगल ही जंगल था. घना और डरावना जंगल. कुछ शिष्य घबराने लगे. तब उन्हीं के साथियों ने उन्हें धीरज रखने को कहा. समझाया कि वे अपने जमाने के सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति के साथ हैं. इससे उनका साहस बढ़ा. वे आगे बढ़ते गए. चलते-चलते जंगल और घना होता चला गया.
सांझ घिरते-घिरते उनका कारवां एक श्मशानघाट के पास पहुंचा. सामने चिता जल रही थी. तभी उनके कानों में किसी स्त्री के रोने की आवाज पड़ी. सभी चैंककर इधर-उधर देखने लगे. एक बुढ़िया पर उनकी नजर पड़ी जो एक वृक्ष के नीचे बैठी बिलख रही थी. वे बुढ़िया के पास पहुंचे. कन्फ्युशियस उसे तसल्ली देने लगे.
‘चार महीने पहले आदमखोर शेर मेरे ससुर को खा गया था. महीना-भर पहले उसने मेरे पति पर हमला किया और उन्हें भी मार गिराया...और आज...!’ बताते-बताते बुढ़िया बिलखने लगी. कन्फ्युशियस समेत वहां मौजूद सभी लोग गमगीन हो गए.
‘धीरज रखो मां...’ कन्फ्युशियस ने कहा.
‘कैसे धीरज रखूं जबकि मेरा सबकुछ तबाह हो चुका है...जालिम शेर ने मेरे इकलौते बेटे को भी नहीं छोड़ा.’ कहकर बुढ़िया डकराने लगी. उसकी आवाज ने जंगल को उदासी से भर दिया. हवा शोकगीत गाने लगी.
कन्फ्युशियस जैसा विद्वान भी अपने आंसू नहीं रोक पाया. शिष्य शोकाकुल हो उठे.
‘मां एक बात पूछूं?’ कन्फ्युशियस इधर-उधर देखते हुए बोला. चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था. घनघोर नीरवता थी.
‘कुछ भी पूछ बेटा. परंतु बड़े-बड़े उपदेश देकर मुझे रोने से मत रोकना.’
‘धीरज रख मां. वक्त के कदम सदा आगे ही पड़ते हैं. कल की सोच. आदमखोर शेर तेरे पूरे परिवार को को खा चुका है. लेकिन खुद को बचाना सबसे बड़ी नैतिकता है. इसलिए तू इस खतरनाक जंगल को इसी क्षण छोड़कर सुरक्षित स्थान पर चली जा. यहां के राजा के बारे में सुना है कि वह बहुत बहादुर है...’
‘चुप! नाम मत ले उस अन्यायी का. ऐसी बहादुरी भी क्या जो पड़ोसी राजाओं को चैन से जीने ना दे. वह राजा ही कैसा जो युद्ध के नाम पर ज्यादा से ज्यादा कर बटोरने के लिए रात-दिन अपनी प्रजा पर अत्याचार करता रहे. मैं यहां से जाने के बारे मैं सोच भी नहीं सकती. एक अन्यायी राजा का अत्याचार का शिकार बनने के बजाय, आदमखोर शेर का शिकार बनना मुझे मंजूर है.’
‘अन्यायपूर्ण शासन शेर से भी ज्यादा डरावना होता है.’ कन्फ्युशियस ने मन ही मन निष्कर्ष निकाला.
कारवां आगे बढ़ा तो कन्फ्युशियस ने उस शिष्य को संबोधित करते हुए कहा—‘देखा, ताकत से आदमी राज तो चला सकता है. लेकिन लोगों को जीत नहीं सकता. लोगों के मन पर विजय केवल सहृदयता ये ही संभव है. इसलिए ताकतवर बनने से भी कहीं अच्छा है कि तुम सहृदय बनो.’
ओमप्रकाश कश्यप
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें