एक सपाट और खुला-खुला मैदान....जहां ना कोई पेड़ था ना पौधा. ना पक्षी थे ना जानवर. ना षोर था ना प्रदूषण....वहां पहुंचा एक अकेला ऊंट. उसने इधर देखा....उधर देखा. ऊपर देखा, नीचे देखा....ना इधर कोई दिखाई पड़ा, ना ही उधर कोई दिखाई दिया. ना नीचे कोई नजर आया, ना ऊपर कोई नजर आया....षाम होने वाली थी. डूबते सूरज के साथ ऊंट ने अपनी परर्छाइं देखी. दूर तक फैली हुई. फिर क्या था....उसका दिमाग उड़ा और सातवें आसमान को छूने लगा.
‘चांद-सितारों से भरे नीले आसमान में कोई हो तो हो. धरती पर केवल मैं हूं. मुझसे ऊंचा कोई नहीं.’ मन ही मन वह बलबलाया. गुमान से तने-तने उसने दाएं देखा....बाएं देखा. नीचे देखा....ऊपर देखा. सहसा घास के बीच से गुजरती चींटी पर उसकी नजर पड़ी. अभिमान से भरा ऊंट उसके पास पहुंचा. छूटते ही बोला- ‘देखी मेरी ऊंचाई?’
‘हां, देखी दादा.’ चींटी अपने काम में लगी थी. सो इतना ही कह पाई.
‘चांद-सितारों से भरे नीले आसमान में कोई हो तो हो. धरती पर केवल मैं हूं. मुझसे ऊंचा कोई नहीं. मेरी कोई बराबरी नहीं, क्यों?’ कहते-कहते उसने गर्दन और ऊपर उठा ली. मानो आसमान छू लेना चाहता हो.
‘दादा, मैं भी यही मानती हूं. पर बात तो तब है जब छंछूदर भी माने.’
‘छुंछूदर की ये मजाल कि मेरी ऊंचाई को चुनौती दे. कहां रहता है वह?’
‘रहता तो इसी मैदान में है. लेकिन जमीन के भीतर. रात को निकलता है.’
‘मैं उस बदतमीज से इसी समय मिलना चाहता हूं. तुम उसे आवाज देकर मेरे सामने हाजिर होने को कहो.’
चींटी को लगा कि बुरी फंसी. पीछा छुड़ाने के लिए उसने वहीं खड़े-खड़े आवाज दी. नीचे छुंछूदर गहरी नींद सोया था.
‘और जोर से आवाज लगाओ.’ ऊंट ने जोर देकर कहा. चींटी उससे पीछा छुड़ाना चाहती थी. उसने युक्ति से काम लिया. बोली-
‘लगता है टहलने गए हैं. मैं अभी बुलाकर लाई.’ कहते हुए बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा में वह आगे बढ़ गई. वहीं एक बिल बना था. चींटी उसमें घुसी और दूसरी दिषा से निकलकर फिर अपने काम में लग गई.
ऊंट बाहर बैठकर छुंछूदर का इंतजार करने लगा. धीरे-धीरे दिन ढला. षाम हुई. रात आई. तारे टिमटिमाने लगे. चांदनी घास पर थिरकने लगी. हवा दिनभर के थके प्राणियों को दुलारने लगी. आसमान धरती पर ओस बुरकने लगा. मौसम अनुकूल देखकर छुंछूदर बिल से निकला. ऊंट को देख वह सकपकाया. बचकर निकल जाना चाहता था कि ऊंट ने खड़े होकर कहा- ‘क्यों भई, बड़ी देर लगा दी.’
छुंछूदर अपने काम पर जाने की जल्दी में था. इसलिए ऊंट के मुंह लगना उसने जरूरी न समझा. पीछा छुड़ाते हुए बोला- ‘क्या बताऊं दादा! तीन दिनों से धरती की गहराई नापने लगा था. अब जाकर निपटा हूं.’
‘अच्छा कितनी गहराई है?’ ऊंट ने सवाल किया. छंुछूदर को मजाक सूजा. कहा- ‘दादा, मैं पढ़ा-लिखा तो हूं नहीं जो ठीक-ठीक बता सकूं. लेकिन तीन रात और तीन दिन तक खुदाई के बाद जितना जान सका हूं उससे इतना तो तय है कि धरती की कुल गहराई आपके घुटनों जितनी होगी.’
‘सच?’ ऊंट को आष्चर्य हुआ.
‘बिल्कुल सच!’ छुंछूदर की बात ऊंट को भली लगी. उसकी गर्दन गुमान से और भी तन गई, खुश होकर बोला- ‘मैं पहले ही कहता था. चांद-सितारों से भरे नीले आसमान में कोई हो तो हो. धरती पर केवल मैं हूं. मुझसे ऊंचा कोई नहीं?’
‘जी हां, आप जितना कोई नहीं!’
‘यह बात तुम भी मान रहे हो ना?’ ऊंट ने पूछा.
‘तीन रात और तीन दिन तक खुदाई के बाद जितना जान सका हूं वही बता रहा हूं. लेकिन.....’
‘लेकिन? क्या अब भी किसी को शक है?’
‘ना दादा मैं तो आजमा चुका हूं. लेकिन लोमड़ी के दिमाग का मुझे पता नहीं....आप तो जानते ही हैं उसकी आदत को. हमेशा कुछ न कुछ आयं-बायं बकती रहती है.?’ छुंछूदर ने कहा और अपने काम पर जाने की इजाजत मांगी.
‘ठीक है. मैं उस दुष्ट लोमड़ी को भी देख लूंगा?’ ऊंट गुस्से से बलबलाया. उसे मालूम था कि लोमड़ी झाड़ी में विश्राम करती है. वह उसी ओर चल पड़ा. तब तक रात हो चुकी थी. आसमान चांद-सितारों से भर चुका था. पक्षी अपने-अपने नीड़ में दुबक चुके थे. नन्ही चिरैया बच्चे को सुलाने के लोरी सुना रही थी. कुटकुट गिलहरी सपने में डूबी थी. लोमड़ी सोने ही जा रही थी कि ऊंट वहां पहुंच गया. उसे देखते ही लोमड़ी खड़ी हो गई.
‘आइए दादा आज अचानक कैसे? नींद नहीं आ रही क्या?’ ऊंट जान-बूझकर उस समय लोमड़ी के सामने खड़ा हो गया. लोमड़ी उसके घुटनों तक पहुंच रही थी. ऊंट ने अपनी गर्दन और ऊपर उठा ली. अगले ही पल लोमड़ी की आंखों में आंखें डालकर बोला- ‘चींटी तो हमेषा से मानती आई है. कल छुंछूदर ने भी धरती की गहराई नाप कर पक्का कर चुका है. सुना है कि तुम्हें फिर भी शक है?’
लोमड़ी की कुछ समझ में न आया तो कारण पूछा. तब ऊंट ने कहाः
‘यही कि धरती की गहराई भी मेरे घुटनों से चार अंगुल कम है....समझी!’ अंतिम शब्द पर ऊंट ने जोर दिया. ऊंट की बात सुनकर लोमड़ी मन ही मन हंसी.
‘समझ गई दादा.’
‘अच्छी बात है. हालांकि अपने मुंह से अपनी ही बड़ाई करना मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता. लेकिन बात जब चल ही पड़ी है तो बता देना अच्छा है कि चांद-सितारों से भरे नीले आसमान में कोई हो तो हो. धरती पर केवल मैं हूं. मुझसे ऊंचा कोई नही....मेरी कोई बराबरी नहीं, क्यों?’ ऊंट ने गर्दन उठाकर कहा.
लोमड़ी को चापलूसी भाती थी. इसलिए ऊंट के गुमान को और उठान देते हुए वह आवाज में शहद घोलकर बोलीः
‘राम-राम, मेरी नजर तो आपके पैरों से ऊपर पहुंच ही नहंीं पाती. फिर आपसे भी कोई ऊंचा होगा यह मैं कैसे जान सकती हूं.’
लोमड़ी की सहमति मिलने के बाद ऊंट का चेहरा गर्व से तन गया. उसने मान लिया कि संसार-भर में वही सबसे ऊंचा प्राणी है. कोई उसका मुकाबला नहीं कर सकता. यही सोचकर वह घमंड से तना-तना रहने लगा. धीरे-धीरे उसका घमंड इतना बढ़ गया कि उसने दूसरे जानवरों से ढंग से बात करना भी छोड़ दिया. यहां तक कि बात-बात में उनकी हंसी उड़ाने लगा. छोटे जानवरों की जब चाहे गर्दन उमेंठ देता और जब चाहे वह उनकी पिटाई कर देता था. इससेे जंगलवासी उससे परेषान रहने लगे. एक दिन सबकी सभा हुई. जिसमें सभी ने ऊंट की षिकायत की और सभापति कछुआ से फौरन ऊंट को समझाने का आग्रह किया.
‘ठीक है मैं कोई उपाय करूंगा, लेकिन एक शर्त है?’ अब सभापति की बात कौन टालता. सभी ने कछुआ से शर्त का खुलासा करने को कहा.
‘ऊंट दादा का दिल सोने-सा खरा और मन गंगाजल-सा पवित्रा है. वे दूसरों के हमेषा काम भी आते रहे हैं. हमें उनकी ऊंचाई से कोई षिकायत नहीं है. परेशानी उनके घमंड या बड़बोलेपन से है. जिसके लिए बहुत से प्राणी पीठ पीछे उनका मजाक उड़ाने लगे हैं. वायदा करो कि आगे से कोई उनका मजाक नहीं उड़ाएगा.’
‘ऊंट दादा ने हमें अपनी पीठ पर बैठाकर कई बार नदी पार कराई है. इसलिए हम तो यह सोच भी नहीं सकते.’ गिलहरी और बंदर ने एक साथ कहा.
‘फिर ठीक है अब आप सब अपने-अपने घर जाएं. सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो तीन दिन के बाद हम फिर ऊंट दादा की सवारी का मजा लूट सकेंगे.’ कछुआ ने सभा विसर्जन का ऐलान करते हुए कहा. इसके बाद सब अपने-अपने ठिकाने पर लौट गए. कछुआ भी नदी की ओर चल दिया. उसे मालूम था कि ऊंट हर दूसरे दिन पानी पीने नदी तट पर आता है. नदी के किनारे पहुंचकर कछुआ वहीं रेत में लेट गया. काफी इंतजार के बाद उसने ऊंट को वहां से गुजरते देखा. कछुआ को देखते ही ऊंट को फिर अपनी ऊंचाई पर घमंड होने लगा. सो दूर से कछुआ को सुनाते हुए बोला- ‘चांद-सितारों से भरे नीले आसमान में कोई हो तो हो. धरती पर केवल मैं हूं. मुझसे ऊंचा कोई नही....मेरी कोई बराबरी नहीं, क्यों?’
‘ठीक कहते हो दादा. लेकिन मगरमच्छ से पूछ लो.’
‘पानी में रेंगने वाले जीव की यह मजाल कि मेरी ऊंचाई को चुनौती दे?’ ऊंट बोला.
‘मैं मामूली-सा जीव आपको भला क्या समझा सकता हूं. आप चाहें तो उसी से ही पूछ लें.’ ऊंट मगरमच्छ से डरता था. लेकिन इतना जानता था कि वह नदी से बाहर उसकी बराबरी नहीं कर सकता.
‘ठीक है. मैं कहीं भी चलने को तैयार हूं. परंतु याद रखना कि मेरी बात काटकर तुमने मेरा अपमान किया है. अब यदि मगरमच्छ ने तुम्हारा समर्थन न किया तो मैं भूल जाऊंगा कि तुम जंगल के सभापति हो. और मैं तुम्हें अपने इन्हीं पैरों से कुचल डालूंगा.’
‘यदि मैं गलत हुआ तो आपकी हर सजा मुझे मंजूर होगी.’ कछुआ आगे-आगे चल पड़ा. मगरमच्छ बाहर आराम फरमा रहा था. ऊंट चलते-चलते ठिठक गया. उस समय तक दोपहर हो चुकी थी. सूरज ऊपर था. इसलिए ऊंट की परर्छाइं उसके पैरों के ठीक नीचे थी. मगरमच्छ से कुछ दूर खड़ा होकर ऊंट कहने लगा -
‘तुम ठहरे पानी के जीव. हम मैंदान पर दौड़ लगाने वालों के बारे में भला क्या जानो. फिर भी तुम मेरे बारे में ऐसी-वैसी बातें करते रहते हो. तुम्हारी जानकारी के लिए ही बता दूं कि चांद-सितारों से भरे नीले आसमान में कोई हो तो हो. धरती पर केवल मैं हूं. मुझसे ऊंचा कोई नहीं....मेरी कोई बराबरी नहीं?’
‘मेरी आंखों के सामने सूरज है इसलिए ठीक से देख नहीं सकता. मुझे फैसला करने में आसानी होगी यदि तुम और कछुआ नदी मेरे सामने पार करो. तब मैं यहां से देखकर बता दूंगा कि तुम्हारा दावा कहां तक सच है.’ ऊंट पानी में मगरमच्छ की ताकत को अच्छी तरह जानता था. फिर उसे तैरना भी नहीं आता था.
‘तुम पानी में गुलगुली करने लगोगे. इसलिए कोई और शर्त रखो.’
‘यदि यही बात है तो मैं यहां से हटूंगा तक नहीं.’ मगरमच्छ ने आश्वासन दिया. ऊंट के मन में शंका बनी रही. परंतु करता क्या. आफत उसने खुद ही मोल ली थी.
‘मै तैयार हूं पर तुमने जो कहा है उसपर डटे रहना.’ इसके साथ ही ऊंट और कछुआ दोनों पानी में उतर गए. देखते ही देखते उन दोनों की बहस की खबर पूरे जंगल में फैल गई. जिसने भी सुना वही नदी तट की ओर दौड़ पड़ा. देखते ही देखते वहां जंगली जानवरों का तांता लग गया.
मगरमच्छ नदी के किनारे पर लेटा हुआ था. इसलिए ऊंट को कोई डर भी नहीं था. जीत के भरोसे वह नदी में दौड़ता चला गया. स्वभाव के अनुसार कछुआ धीरे-धीरे तैरने लगा. नदी गहरी थी. जिसका ऊंट को कतई अंदाजा नहीं था. मंझधार तक पहंुचते-पहुंचते पानी ऊंट की गर्दन को डुबोने लगा. उसने गर्दन घुमाकर देखा. कछुआ पानी को चीरता हुआ तेजी से बढ़ा चला आ रहा था.
‘जीत बस कुछ कदम आगे है. मुझे थोड़ी हिम्मत और करनी चाहिए.’ ऊंट ने सोचा और अपने कदम आगे बढ़ा दिए. लेकिन यहीं वह चूक गया. आगे पानी बहुत गहरा था. ऊंट डूबने लगा. हाथ-पैर चलाकर उसने तैरने की कोशिश की. किंतु अभ्यास की कमी से सफल न हो सका. फेफड़ों में पानी भरने से उसकी सांसें घुटने लगीं. आखिर साहस जवाब दे गया. दिलो-दिमाग पर बेहोशी छाने लगी. तभी नदी तट पर जमा प्राणियों ने मगरमच्छ ने पानी में छलांग लगाते देखा. उनकी सांसें थमने लगीं. आगे का अंजाम सोच वे वापस अपने-अपने ठिकाने की ओर लौटने लगे.
ऊंट को होश में आने में पूरे चैबीस घंटे लगे. उस समय जंगल के बीसियों जानवर उसके आस-पास जमा थे.
‘अब कैसी तबियत है.’ बराबर में लेटे हुए मगरमच्छ ने अपनी आंखें मिचमिचाते हुए पूछा.
‘बाहर लाने के बजाए तुम मुझे खा भी सकते थे.’ ऊंट ने सवाल किया. उसका घमंड चूर-चूर हो चुका था.
‘उस समय मुझे सचमुच बहुत जोर की भूख लगी थी. एक बार तो जी में भी आया कि इतना बड़ा शिकार है. खाकर मजे से तीन दिन धूप सेकूंगा. लेकिन....’
‘लेकिन क्या....’ ऊंट ने पूछा.
‘सोचा कि इस तरह तुम्हारा शिकार किया तो सब कहेंगे कि मैं मौके का फायदा उठाता हूं. संकट के समय दूसरों की मदद करना नहीं जानता.’
‘मैंने जो तुम्हारे बारे में सुना था वह गलत है. तुम बहुत अच्छे हो दोस्त.’ ऊंट ने कहा.
‘ठीक है....ज्यादा लफ्फाजी नहीं. चैबीस घंटों से लेटे-लेटे मेरी देह अकड़ चुकी है. भूख भी लग आई है. अब तुम यहां से हटो. वरना मुझे गुलगुली करनी पड़ेगी.’ मगरमच्छ ने करवट ली तो ऊंट फौरन खड़ा हो गया. तभी जानवरों के बीच से निकलकर गिलहरी, बंदर, खरगोश, नेवला, चूहा और छुंछूदर बाहर आए तथा ऊंट के सामने खड़े हो गए. उनकी आंखों में आंखें डालकर ऊंट ने कहा—
‘अच्छी तरह से जान लो! चांद-सितारों से भरे नीले आसमान में कोई हो तो हो. धरती पर केवल मैं हूं. मुझसे अच्छी कोई सवारी नहीं है. अब जिसको भी सैर करनी वह फटाफट मेरी पीठ पर सवार हो जाए.’
खरगोश, नेवला, गिलहरी, बंदर, छंछूदर और कौआ तो न जाने कब से इसकी प्रतीक्षा में थे. उछल-उछलकर सब उसकी पीठ पर सवार हो गए. सबको लेकर ऊंट हवा से बातें करने लगा.
ओमप्रकाश कश्यप
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